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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक बालप्रमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अपत्तजग गम्भवक्कंतिय मणुस्साणं पुच्छा ? गोयमा!जहन्नेवि उक्कोसेणंवि अंगुलस्स असंखजति भागं, पजत्तग गम्भवक्वंतिय मणस्साणं पच्छा गोयमा !जण्डणेणं अंगलस्स असंखजति भागं उक्कोसेणं तिण्णिगाउयाई॥२॥वाणमंतराणं भवधारणिजाय उत्तरवेउब्बियाय जहा असुरकमासणं तहा भाणियव्वा जहा वाणमंतराणं तहाजो इसियाणं / सोहम्मे कप्पे देवाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता तंजहा-भवधारणिज्जाय उत्तरवेउब्बियाय, तत्थणं जासा भवधारणिज्जा सा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखजति भागं उक्कोसेणं सत्तरयणीओ, तत्थणं जा सा उत्तर वेउब्बिया सा जहन्न अंगुलस्स असंखेजइ भागं उक्कोसेणं जोयण सयसहस्सं // एवं ईसाण कप्पेवि भाणियव्वं जहा सोहम्मे कप्पे देवाणं माग उत्कृष्ट तीन गाउ की, अपर्याप्त गर्भज मनुष्य की जघन्य उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवे भाग, पर्याप्त गर्भज मनष्य की जघन्य अंगुल के असंख्यातवे भाग उत्कृष्ट तीन गाउ की. // 20 // अब देवता की अवगाहना कहते हैं, वाणव्यंतर ज्योतिषी की जैसी असुरकुमार देवता की कही तैसे ही कहना, सौधर्म देवलोक के देवता के भवधारणिय शरीर की जघन्य अंगल के असंख्यातवे भाग उत्कृष्ट सात हाथ की, उत्तर वैक्रय करे उस की जघन्य अंगुल के संख्यातवे भाग उत्कृष्ट एक लाख योजन की. ऐसे ही ईशान देवलोक की भी कहना. सनत्कुमार देवलोक के देव के भवधारणिय शरीर की जघन्य प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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