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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४९ गृहगेोधिका विषशान्तिः ५० २४ हिंगु चार्कपयोघृष्टं दष्टापरि च दापयेत् । वृश्चिकस्य विषं हन्ति यथा रजनीं धुपतिः || १५ || जिस प्रकार सूर्योदयसे रात्रीका नाश होता है उसी प्रकार अर्क दुग्धमें हिंगु पीस कर दंशकें और लेप करनेसे वृश्चिक के विषका नाश होता है ||१५|| Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कटुत्र शिशुकर जबीज द्वयं निशाया कपिकच्छुवीजम् । निहन्ति पानेन विलेपनेन विषं समग्र गृहगोधिकायाः || १६ || त्रिकटु, शिशुबीज, करंजबीज, हरिद्राद्वय तथा कौंचेका बीज - इन सबको एक साथ पीने और लेप करनेसे गृहगोधिका के विषका नाश होता है ||१६|| ५१ मूषकविषशान्तिः सरठविषशान्तिः अर्कमूलत्वचाचूर्ण पीतं शीतेन वारिणा । सरठस्य विषं हन्ति तत्क्षणान्नात्र संशय ||१७|| शीतल जलके साथ अर्कमूल त्वचा के चूर्णका सेवन करने मे सरठ के विषका तत्क्षण नाश होता है, इसमें कोई संशय नहीं है ||१७|| सितया सह पानं तु बाणपु खरसः पलम् । यः पिबेत् प्रातरुत्थाय मूषकस्य विषापहम् ||१८|| For Private And Personal Use Only
SR No.020047
Book TitleAnupan Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishram Acharya
PublisherGujarat Aayurved University
Publication Year1972
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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