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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ਝਦ ਲੀ ਰੰਨ ਥੇ 102 बात तो एक बार रती, यहां तो पार्मिक वाद - विवादों में शियाओं और सुन्नियों के पारस्परिक फगई, विदेण, कटुता, आरोप प्रत्यारोप का बाहुल्य हो गया । अकबर को इससे बड़ी निराशा हुई और वह इस को सन्देह की दृष्टि से देखने लगा । जब इमाम के प्रति उसकी निष्ठा कम हो गई तो उसने इबादत खाने में विभिन्न विलिवियों को अपने धर्म के सत्य सिद्धान्तों के प्रवचनों के लिये आमंति क्यिा । उनके धार्मिक विवो वीर प्रवचनों में उसने सत्य की खोज करता चाही । अकबर ने - विन्द, जैन, पारसी, ईसाई व इस्लाम की के सिद्धान्तों का बड़ी सावधानी व लगन से अध्ययन क्यिा । उनके उपदेश, रीति - रिवाजों और उत्सवों के विभिन्न गो का मनन क्यिा । मानव जीवन और विचारों पर उनके प्रभाव को लपिात क्यिा । उकबर या कार्य इकाइत खाने में अपने । दरबार में और व्यक्तिगत भेटों में निरन्तर सात वाँ तक करता रहा । अन्त में अकबर अपने दीर्घ अनुभव, अध्यवसास, धर्म चर्चाओं और अध्ययन के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि यपि हर धर्म में सत्य का अंश है, परन्तु प्रत्येक में महत्व पूर्ण कमी है। सभी धमों में कुछ ऐसे - विभिन्न उत्सव व रस्म है, जो परस्पर विरोधी और कटवा उत्पन्न करती है । अतस्व न तो केवल इस म ही और न अन्य धां में से कोई स्क धर्म ही सब को एक राष्ट्रीय स्कता में बांध सकता है । इस लिये अकबर इस समस्या के हल के लिये स्क रेसा में चाहता था जिसमें प्रचलित धाँ की अच्छाश्यां व सच्चाई हो, पर क्लिी धर्म की बुराई न हो । वह ऐसा मैं चाहता था जिसमें साम्प्रदायिक मेद - माओं को विस्माण कर सब लोग शाश्वत धर्म के सार्वभौम व सर्व मान्य आवरण के युक्त सिद्धान्तों के अनुयायी हो सके । धार्मिक व सांस्कृतिक पुर्नजागरण की पृष्ठ इमि में धार्मिक - संकीगता और नेद - भावों से ऊपर उठ कर अकबर अपनी प्रजा में समान धर्म फलाना चाहता था । अकबर ने कहा कि" एक शासक के अधीन - सामाज्य में पदि अनता रस्पर विभक्त है और E एक इधर बाता है और + + + + For Private And Personal Use Only
SR No.020023
Book TitleAkbar ki Dharmik Niti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherMaharani Lakshmibhai Kala evam Vanijya Mahavidyalay
Publication Year1977
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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