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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥१०३५॥ 1-% www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( सू० १५१ ) तिबेमि वत्थेसणा समत्ता ॥ २-१-१-२ भिक्षु रंगाळ व कारण विशेषथी लीघां होय, तो चोर विगेरेना भयथी रंग विनानां न बनावे, उत्सर्गथी तो एज अधिकार छेके व त्र लेवांज नहि अने लीधां होय तो तेने रंग उतरवाप्रयत्न न करवो, अथवा वर्ण ( खराब रंगनां) होय तो सारा रंगवाळां बनाववां नहि. अथवा आ सादा बने बदले सारुं मेळवीश, एवी इच्छाथी बीजाने आपी देतुं नहि, तेम प्रामित्य करतुं नहि, तथा वस्त्रथी वस्त्र परिणाम कर नहि, तेम बीजा पासे जइने एवं बोलं नहि, के हे आयुष्यमन् ! आ मारुं वस्त्र ओढवा परवाने तुं इच्छे छे ? अथवा सारुं होय तो टुकडा करीने फेंको देवु नहि, के जेथी मारुं वस्त्र बीजो गृहस्थ एम जाणे के ए खराब हतुं ( माटे फंकी दीधुं छे) वळी मार्गमां चोरना भयथी वस्त्रना रक्षण माटे उन्मार्गे डरीने न जाय तथा दोडवानी उत्सुकता राखवा विना इर्यासमिति पाळतो जाय अने गाम गाम विहार करे. वळी रस्तामां जतां उज्जड मेदान जाणे, ज्यां वस्त्र लुंटनारा बहु चोरो वसता होय, तो तेमना डरथी पण उन्मार्गे न जाय, पण यतनाथी विहार करे, कदाच ते रस्ते जतां चोरो आवे अने वस्त्र मागे, अथवा लुंटी ले, तो शांतिथी उपदेश आपत्रो. न माने तो बाजुए परठवी देवु अने फरी उपदेश देतां आपे तो लेवं, पण कोइने कहेतुं नहि, तेम चोरने पकडववा नहि, बगेरे वधुं पूर्व माफक जाण बुं पांच अध्ययन समाप्त थयुं. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥१०३५॥
SR No.020012
Book TitleAcharanga Stram Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1935
Total Pages328
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size15 MB
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