SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥९३५॥ 2044Cc- वा साहम्मिया तत्थ वसंत्ति संभोइया समणुना अपरिहारिया अदरगया, तेसिं अणुप्पयायचं सिया, नो जत्थ साहम्मिया जहेच बहुपरियावनं कीरइ तहेच कायध्वं सिया, एवं खलु० ॥ (मू०५९) ।।२-११-१-१० ॥ पिण्डैषणायां सूत्रम् दशम उद्दशकः ॥ ॥९३५॥ ते भिक्षु घर विगेरेमा गोचरी जतां कदाच गृहस्थ पासे मांदा विगेरे माटे खांड विगेरे मांगतां बिड लवण खाणमां उत्पन्न यएल मीटुं तथा उद्भिज ते समुद्रन मीठं भूलथी आपे, ते बखते साधुए तेना हाथमां के वासणमांधी तपासीने लेवु के भूलथी खांडने बदले मीटुं न आवे, पण कदाच बनेने उतावळ होवाथी साधुना पात्रमा आची गयु होय अने थोडे दूर गया पछी साधुने । खबर पडे तो पाछो आवीने ते गृहस्थने कहे के, आ तमे खांडने बदले मीठं आपेल हे ते जाणमां के अजाणमां? जो अजाणमा 8 आप्यानुं कहे अने पछी एम कहे के तमने जो खप होय तो वापरजो, आ प्रमाणे गृहस्थ जो रजा आपे तो मामुक होय तो साधुए। वहेंचीने खावं, कदाच अप्रामुक आवे अने गृहस्थ पार्छ न ले तो परठववानो महान दोष जाणीने पोते खाय पीये, वधारे होय नोट नजीक रहेला उत्तम साधुओने वडेंची आपे, तेवा साधर्मिक न होय तो पोतानी शक्ति प्रमाणे वापरे, (बाकीर्नु परठवी दे.) आर 3 साधुनु सर्वथा साधुपणुं छे. ( एटला माटे बने त्यां लगी गोचरी जनारे गोचरीमांज पुरतुं लक्ष्य राखीने वस्तु लेवी के पछवाडे आवी तकलीफ न पडे.) दसमो उद्देशो समाप्त. CAC -%25 For Private and Personal Use Only
SR No.020012
Book TitleAcharanga Stram Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1935
Total Pages328
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy