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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० 11806111 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अद्रव्य भूत पापनां कलंकथी अंकित थवाथी एवा उत्तम साधुओ साथे वसतां पण सुधरता नथी. (अर्थात् जगत्मां सारा साधुओ | नजरे जोवा छतां पण, ढीला साधु सुधरता नथी) आवा ढीला साधुने जाणीने शुं कर ? ते कहे छे: - हे साधु ! तुं पंडित छे. ज्ञाता ज्ञेय छे, मर्यादामां रहेल मेधावी छे, विषय सुखनी तृष्णा तें दूर करी है, तथा तुं वीर होवाथी कर्म विदारण करवामां शक्तिवान् छे, तेथी सर्वज्ञप्रणीत उपदेशना अनुसारे सर्वदा संयम अनुष्ठानमां वर्त्तजे. आ प्रमाणे सुधर्मास्वामि कहे छे: धृत अध्ययननो चोथो उद्देशो समाप्त. धृत अध्ययन पंचम उद्देशो. चोथो कहीने पांचमो कहे छे. तेनो आ संबंध छे. गया उद्देशामां कर्म दूर करवा ऋण गौरव छोडवानुं बतान्युं अने ते कर्म विधूनन उपसर्ग विधूनन विना संपूर्ण भावने अनुभवतुं नथी, तथा सत्कार पुरस्काररूप सन्मानना विधूनन विना गौरव त्रिकनी विधूनना संपूर्णताने न पामे; एथी उपसर्ग सन्मानने विधूनन करना आ उद्देशो कहे छे. आ संबन्धे - आवेला उद्देशानुं आ पहेलुं सूत्र छे. अस्खलितादि गुण युक्त उच्चारखुं ते कहे छे: सेगिसु वा गितरेसु वा गामेसु वा गामंतरेसु वा नगरेसु वा नगरंतरेसु वा जणवयेसु वा जणवयंतरेसु वा गामनयरंतरे वा गामजणत्रयंतरे वा नगरत्रणवयंतरे वा संतेगइया For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥७०४ ॥
SR No.020011
Book TitleAcharanga Stram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1934
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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