SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६४०॥ www.kobatirth.org न जणाय तो, उपमाद्वारवडे आदित्यनी गति माफक जणाय छे के ? उ० – नहीं ते कहे छे, साहश वस्तुनी उपमा थाय छे के | तेनी माफक आ छे पण ते सिद्ध मुक्त आत्मानी तुलना के तेमना ज्ञान के सुखनी तुलना लोकनी वस्तुनी साथ थती न होवाथी अनुपम छे. १० - शा माटे ? उत्तर- ते मुक्त आत्मानी जे सत्ता छे ते रूप रहित छे। अने ते अरुषीपणुं उपर कल दीर्घ विगेरेनो निषेध करवाथी बतायुं छे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बळी तेने पद 'ते अवस्था कोइ पण जातनी न होवाथी अपद छे, तेनुं अभिधान पण नथी के जे पद वडे अर्थ बोलाय का रण के वाच्य पदार्थनो अभाव छे. कारण के जे कहेवाय छे, तेज शब्दरूप गंध रस फरस विगेरेमांथी कोइ पण एक विशेषणथी बोलाय छे. तेनां अभाव छे ते बतावे छे. अथवा दीर्घ विगेरे शब्दोश्री रूप विगेरेनुं विशेषथी निराकरण कयूँ हवे सामान्यथी पछीना सूत्रमां निराकरण करे छे. | सेनसद्दे न रूवे गंधे न रसे न फासे, इश्चेव त्तिबेमि (सू० १७१) षष्ट उद्देशकः लोकसाराध्ययनं समाप्तम् ५-६।। ते मुक्त आत्माने शब्दरूप गन्ध रस के स्पर्श नथी आज भेदो मुख्यत्वे वस्तुना के अने तेना प्रतिषेधथी वीजां कई विशेष | भेद देखातो नथी, के जेथी अमे बीजुं बतावीए ! आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी कडे छे. सूत्रानुगम कह्यो, अने तेनी समाप्तिथी अपत्र|र्गने पामेलो (मोक्ष विषय कहेवानो) उद्देशो पूरो थयो, ते मोक्षनी प्राप्तिमां तपनी वक्तव्यता थोडामां बतावी पंचम अध्ययन पुरुं थयुं 1000000em 0000 टीकाना श्लोक १९१५ थया For Private and Personal Use Only सूत्रम 1188011
SR No.020011
Book TitleAcharanga Stram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1934
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy