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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ||६३६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'आ' सर्वनाम वांची शब्दथी सूचव्युं, के जे कोइ महा पुरुष अतिशयवाळ ( उत्तम संयमनां) कृत्य करीने केवो थाय ? ते कहे छेअकर्मा एटले घाति कर्म रहित बने, (कर्मनो अर्थ घाति कर्म लीवेल छे) आ घाति कर्म दूर थवाथी ते विशेषथी जाणे, तथा सामान्यथी देखे छे, तथा बधी लब्धिओ तेने थाय छे, एथी ते पूर्वे जाणे छे, अने पछी देखे छे. आथी क्रमनो उपयोग बताव्यो छे; ते प्रमाणे तेने दिव्य (केवळ ) ज्ञान उत्पन्न थवाथी त्रण लोकमां माथाना मुकुटना मणि समान (माननीय ) तथा सुरासुर नरेन्द्रथी पूज्य बने छे, तथा संसार समुद्रना किनारे पहोंचनारो संपूर्ण जाणेल बनी ते पोते शुं करे ? ते कहे छे, ते जाणवानुं जाणेला सुर असुर तथा माणसोथी थती पूजाने अनुभवीने पण तेने कृत्रिम अनित्य असार सोपाधिक [इन्द्रजाळ जेवी] मानीने इन्द्रियोना वि पयोने जीतवाथी उत्पन्न थएल सुखनी निस्पृहताथी तेवी इन्द्रादिनी पूजाने पण तेओ इच्छतानथी, वळी आ मनुष्यलोकमा रह्या छतां केवळ ज्ञानथी जीवोनी आगति संसार भ्रमण तथा तेनां कारणोने ज्ञपरिज्ञावडे जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञावडे संसार भ्रमण दूर करेछे, तेना निराकरणथी शुं थाय ? ते कहे छे. अजाईमरणस्स वमग्गं विक्खायरए, सबै सरा नियहन्ति, तक्का जत्थ नविजइ, मई तत्थ न गाहिया, ओए, अप्पइद्वाणस्स खेयन्ने, से न दीहे न हस्से न वन तंसेन चउरंसे न परिमंडले न किण्हे न नीले न लोहिए न हालिदे न सुकिल्ले न सुरभिगंधे न दुरभिगंधे न तित्तेन कडुए नकसाए न अंबिले न महुरे न For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥६३६॥
SR No.020011
Book TitleAcharanga Stram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1934
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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