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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६२९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिभूय अक्खू अभिभूए पभू निरालंत्रणयाए जे महं अवहिमणे, पवाएण पत्रायं जाणिजा, सह संमइयाए परवागरणेणं अन्नेसिं वा अंतिए सुच्चा (सू० १६७) परिषहो तथा उपसर्गोने जीतीने अथवा घाति चतुष्टयने जीतीने तत्वने जोयुं, तथा अनुकूल प्रतिकूल उपसर्ग आवतां अथवा | अन्य तीर्थिकोथी पोते हार्यो नहीं; एवो समर्थ (प्रभु) निरालंबनताने धारण करे; पण ते आ संसारमां मातापिता, स्त्री विगेरेनुं अवलंबन न चाहे; तथा तीर्थकरनी आज्ञा बहार वर्तवामां नरक विगेरेमां जवानुं छे. एवं भाववामां समर्थ थायः प्र० - पण क्यो पुरुष परिषद उपसर्गने जीतनारो छे ? तथा कोइथी पण, न हारीने निरालंबनपणुं लेवामां समर्थ थाय ? आवुं शिष्य पूछे तो तीर्थकर सुधर्मास्वामी अथवा आचार्य तेने कहे छेः उ०- जेणे मोक्षने लक्ष्यमा राख्यो छे, ते महापुरुष लघुकर्मवाळो मारा उपदेशथी बहार न होय. माटे अबहिर्मन (स्थिरचितवाळो छे, ते सर्वज्ञना उपदेश प्रमाणे चाले. प्र० पण, तेना उपदेशनो निश्चय केवी रीते धाय ? के, आ जिनेश्वरनो छे ? उ०—प्रकृष्टवाद ते, प्रवाद छे. आचार्यनी परंपराए चालेलो; तेने सर्वज्ञना उपदेश तरीके जाणीले अथवा अन्य मतवालानी अणिमादि आठ प्रकारनी लब्धि (ऐश्वर्य) देखीने पण तीर्थङ्करना वचनथी बहार मन न करे, पण तेवाओने इन्द्र जाळीया जेवा ठगनारा जाणीने तेमनुं अनुष्ठान तथा तेमना वादो (वचननो) ने विचारे (परिक्षा करे) For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥६३९॥
SR No.020011
Book TitleAcharanga Stram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1934
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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