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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६२७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञान अने आत्मा एकपणुं मानतां शुं थाय ? ते कहे छे ज्ञान परिणाम आश्रयी आत्मा ते नामेज व्यपदेश कराय छे, जेमके इन्द्रिथी उपयुक्त होय ते इन्द्र कहेवाय, अथवा मतिज्ञानीश्रुत ज्ञानी अवधिज्ञानी मनपर्यवज्ञानी, केवळज्ञानी छे. अने जे ज्ञान आत्मा एकपणुं स्वीकारे छे, तेने शुं गुण थाय, ते कहे छे. उपर बतावेली नीतिए यथावस्थित आत्मवादी थाय, अने तेना सम्यग भाववडे अथवा शमिता (उपशमपणा) वडे पर्यायरूप छे, एटले तेज संयम अनुष्ठानरुप प्रसिद्ध छे, (इति शब्द समाप्ति माटे छे) लोकसार अध्ययनमां पांचमो उद्देशो पूरो थयो. छट्टो उद्देशो. पांचमी उद्देशो को हवे छट्टो कहे छे. तेनो संबन्ध आ प्रमाणे छे, गया उद्देशामां कहां के आचार्ये निर्मळ हृद (कुंड) जेवा थं, तेवा उत्तम आचार्यना संसर्गथी शिष्यने कुमार्गनो परित्याग थाय. तेथी रागद्वेषनी अवश्ये हानि थाय, माटे आ प्रतिपादन [[[सिद्ध] करवाना संबन्धवडे आवेला उद्देशानुं आ पहेलुं सूत्र छे, अणाणाए एगे सोद्वाणा आणाए एगे निरुवद्वाणा, एयं ते मा होउ, एयं कुसलस्स दंसणं तट्टीए तम्मुत्तीए तप्पुरकारे तसन्नी तन्निवेसणे ( सू० १६६ ) अहींआं तीर्थकर गणधर त्रिगेरेनो उपदेश माननार होय, तेने विनेय [शिष्य ] कट्टेल छे, अथवा सर्व भावना संभावितपणाथी For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥६२७॥
SR No.020011
Book TitleAcharanga Stram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1934
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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