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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७७७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वाद कर्या विना फेरवे. मः शा माटे ! उ:- आहारनी लाघवताने स्वीकारतो आस्वाद न करे, आ प्रमाणे आस्वादना निषेधथी अंतमांत आहारनो स्वीकार पण कहेलो समजवो. आ प्रमाणे स्वाद न करवाथी ते साधुने कर्मनी बहोळी निर्जरा थाय छे, ते बधुं पूर्व माफक छे, समपणु समत्वने पामे अथवा सम्यक्त्व निश्चळ थाय ए वधुं पूर्व माफक समजवु. तेवा उत्तम साधु अथवा साध्वीने अंत प्रांत आहार खावाथी मांस लोही ओछा थवाथी जर्जरीत हाडकां थथाथी संयम अनुष्ठान शरीरथी बरोबर न थवाथी खेद थाय तेवी कायचेष्टावाळाने शरीर त्यागवानी बुद्धि थाय, ते बतावे छे. जस्स णं भिक्खु एवं भवइ-से गिलामि च खलु अहं इमंमि समए इमं सरोरगं अणुपुवेण परिवत्तिए, से अणुपुव्वेणं आहारं संवट्टिजा, अणुपुत्रेणं आहारं संहिता, कसाए पणुए किच्चा समाहियजे फलगावयट्टो उद्वाय भिक्खु अभिनिवुडच्चे (सू० ५२१ ) एकत्वभावना भावनार जे साधुने आहार उपकरणमां लाघवपणुं प्राप्त थयुं होय, तेने आवो अभिप्राय थाय छे, (से शब्दनो अर्थ तत् छे अने ते वाक्यना उपन्यास माटे छे, च समुच्चयना अर्थमां छे, खलु अवधारणना अर्थमां छे ) के हुं आ संयमना अबसरमां लुखा आहारथी अथवा रोग उत्पन्न थवाथी पीडाइने ग्लानि पामी अशक्त थयो लुं, लूखा आहारथी के तपथी शरीर अशक्त थवाथी अनुपूर्वए योग्य रीते आवश्यक क्रिया के प्रतिलेखना विगेरे क्रिया करवामां अशक्त बनी गयो छं. अने शरीर दरेक क्षणे नवळं पडतं होवाथी एक वे उपवास के आंबील तप वडे आहारनो संक्षेप करे. अर्थात् साजा शरीरमां बार वर्ष सुधी अनुक्रमे थोडा For Private and Personal Use Only सूत्रम् ) ॥७७७॥
SR No.020011
Book TitleAcharanga Stram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1934
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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