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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit सूत्रम ॥१८॥ www.kobatirth.org णस्स समिया वा असमिया वा असमिया होइ उवेहाए ६, उवेहमाणो अणुवेहमाणं आचा०18 बूया-उवेहाहि समियाए, इच्चेवं तत्थ संधी झोसिओ भवइ, से उहियस्स ठियस्स गई समणुपासह, इस्थवि बालभाचे अप्पाणं नो उवदंसिज्जा (सू० १६३) १६१८॥ श्रद्धा धर्मनी इच्छा ते जेने होय; ते, श्रद्धावान् छे. तेवा भव्यजीवने संचिन, अने योग्य विहार करनारा साधुओए, अथवा P संविन विगेरे गुणोथी दिक्षा लेवायोग्य होय; तेने दिक्षा लेतां शंका थाय; तो, तेने जीवादि पदार्थमां बोध पामवानी अशक्ति होय तो, तेने समजाव, के, हे भद्र ! जिनेश्वरे जे कहेलुं छे, ते शंकारहित अने सत्य छे. आ प्रमाणे दिक्षालेतां बोध आपवाथी तेनो Mआत्मा चारित्रथी निर्मळ थतां; चडता कंडकथी पछाना काळमां पण निर्मळ भावना वधे; अथवा बरोबर रहे; ओछी पण थाय अथवा अभाव पण थाय, आवी जीवनी विचित्र परिणामता बतावे छे, ते श्रद्धावाळाने समजावीने दिक्षा लीधा छता, पोते जिनेश्वरनुं कहेलु वचन शंकारहित साचुं मानतो पाछळथी पण शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, विगेरेथी रहित निर्मळ सम्यक्त्ववालो होय छे, पण भगवानना वचनमा शंका उत्पन्न थती नथी. (१) कोइने दीक्षा लेतां श्रद्धा होवाथी मानवा छतां पाछळथी न्याय भणतां कोई जातनो एकांत पक्ष पकडतां हेतु दृष्टांतनो लेश हाथमा आवतां पूर्वापर विचार न थवाथी; अने ज्ञेयपदार्थ गहन होवाथी मति मुंझाता कोइ वखत मिथ्यात्वना अंशनो उदय थतां; ते जिनवचनने सम्यक् मानतो नथी. ते कहे:-आ बघा नयना समूहना अभिप्रायना कारणे अनंत धर्मथी युक्तवस्तु जेवी छतां, मोहना उदयथी एकनयना अभिप्रायवडे एक अंश साधवा माटे ते साधु जाय छे. जो, नित्य BACCASSES वनय For Private and Personal Use Only
SR No.020011
Book TitleAcharanga Stram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1934
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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