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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४९८॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनादि मिथ्यादृष्टिने प्रण पुंज कर्या विनानो होय तेने यथामत्तकारण वाकीनां कर्म क्षीण थवावाळो होय तेने सोगरोपम कोडा-कोडीमां थोडी ओछी स्थिति होय; तेने अपूर्वकरणमां ग्रंथी भेदाता मिथ्याखने उदय न होय तेवुं अंतःकरण करीने अनिवृत्ति करणवडे प्रथम सम्यक्त्व मेळवे छे ते औपशमिक दर्शन छे, कछे के. “उसरदेसं दडेल्लयं च विज्झाइ वणदवो पप्प । इय मिच्छत्ताणुदए उवसमसम्मं लहइ जीवो ॥१॥" खावा [पर] देश [जग्या] मेळवीने जेम बननो अनि ( दावानल) बुझाइ जाय छे, नेम मिथ्यात्व उदय न आवे. त्यारे औपशमिकसम्यक्त्वने जीव पाते छे. अथवा कोई उपशमश्रेणीमा औपशमिक सम्यक्त्व पामे छे. [१] तेज प्रमाणे सम्यक्त्व पुगलने आश्रयी ने जे अध्यवसाय उत्पन्न थाय ते क्षायोपशमिक छे. [२] तथा दर्शनमोहनीय क्षय थवाथी क्षायिक छे. (३) चारित्रना ऋण भेद (१) दर्शन प्रमाणे चारित्र पण उपशम श्रेणियां औपशमिक [२] कषायना क्षय उपशमथी क्षायोपशमिक [३] तथा चारित्र मोहनीय कर्मना aest क्षायिक चारित्र छे. ज्ञानाचे भागो छे.- क्षायोपशमिक, अने क्षायिक तेमां चार प्रकारना ज्ञान आवरणीय फर्मनो क्षय उपशम थवार्थी मति ज्ञान विगेरे चार प्रकारनुं क्षायोपशमिक ज्ञान छे, अने बधुं घातीकर्म क्षय थवायी क्षायिक केवळ ज्ञान छे. आ प्रमाणे त्रणे प्रकारमा भाव सम्यक्त्वणुं बतावे छते वादी शंका करे छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥४९८॥
SR No.020010
Book TitleAcharanga Stram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size5 MB
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