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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४९३ ।। www.kobatirth.org जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायादंसी, जे मायादंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पिज्जदसी, जे विजदसी से दोसदंसी, जे दोससी से मोहदसी, जे मोहमसी से गब्मदंसी, जे गब्भदसी से जम्मदंसी, जे जम्मदंसी से मारदसी, जे मारदसी से नरयदंसी, जे नरयदंसी से तिरियदसी, जे तीरियदंसी सुदुक्खदंसी । से मेहात्री अभिविहिजा कोहं च माणं च मायं च लोभं च पिज्ज दोसंच मोहं च गमंच जम्मं च मारं च नरयं च तिरियं च दुख्खं च । एवं पासगस्स दंसणं उवरयसत्थस्स पलियंत करस्स, आयाणं निसिद्धा सगडब्भि, किमत्थि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओवाही पासगस्स ? न विज्जइ ?, नत्थि (सू० १२५) तिबेमि || शितोष्णीयाध्ययनम् ३ ॥ जे क्रोधने स्वरुपथी जाणे अने ज्ञानने अनर्थ करनारुं जाणी त्यागवारूप मानीने (ज्ञान वडे) क्राधने त्याग करे, ते साधु निचे मानने पण अनर्थ करनारुं देखे छे, अने तेने त्यागे छे. अथवा जे क्रोधने जाणे छे, अने समय आवतां क्रोधी बने छे, तेवो. माणस मान पण देखे छे, अर्थात् ते अहंकारी पण थाय छे, ए प्रमाणे हवे पछी पण सनजी लेबुं. ज्यां सुधी ते दुःख देखनारो थाय त्यां सुधी जाणवु, सूत्र सुगम होवाथी टीका करी नथी. तो पण मंद बुद्धि हितार्थेथोडामां लखीए छीए. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ।।४९३॥
SR No.020010
Book TitleAcharanga Stram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size5 MB
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