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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४८१९॥ www.kobatirth.org सहिओ दुक्खमत्ताए पुट्ठो ना झंझाए, पासिमं दविए लोकालोकपर्व चाओ मुच्चइ (१२० ) तिबेमि तृतीय उद्देशो ॥ ३-३॥ ज्ञानादि युक्त अथवा हितवाळो उपसर्गधी आवेलां दुःख मात्रथी अथवा रोग थवाथी पीडातां व्याकुळ मतिवाळो न थाय ते दूर करवा प्रयत्न न करे, अथवा इच्छेलं मळतां राग विकल्प तथा अनिष्ट मळतां द्वेष विकल्प न करे, अर्थात रागद्वेष चनेने तजे (न सहेवाय तो मध्यस्थ वनी दवा करे, अने स्थविर साधुने योग्य उपायनो निषेध न होवाथी संतोषयी करे.) वळ उपर कहेला बघा उद्देशाना रहस्यने समजीने करवुं न करकुं ते विवेकधी समजे! कोण? जे मोक्षमां जवा योग्य छे ते | साधु, ए विवेकी साधु क्या गुणो मेळवे ? Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जे आलोकाय (देखाय) ते लोक छे, अने १४ रजु प्रमाण ते छे. लोकमां आलोक ते लोकालोक छे, तेना प्रपंचथी मुक्त | थाय छे, लोकमां प्रपंच आ छे. पर्याप्त, सुभग दुर्भग तथा नारकीना जीवपणे ओळखाय एकेन्द्रियमां अपर्याप्त, एकेन्द्रिपणे ओळखाय ए प्रमाणे बधो संसारी प्रपंच जाणवो. तेनाथी मुकाय एटले चौद राजलोकमां जीवोनुं जुहुं जुदुं रूप तेने मळतां ते नामे गणा य छे, तेवो पोते नहीं थाय. प्रमाणे सुधर्मास्वामी कहे छे. त्रीजो उद्देशो अर्थथी समाप्त. +45 For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥४८१॥
SR No.020010
Book TitleAcharanga Stram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size5 MB
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