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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४७३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के ममेत्पत्ती कहं इओ तह पुणोऽवि गंतवं ? जो एत्तिर्यपि चिंतइ इत्थं सो को न निविष्णो? ॥१॥ अहीं मारी उत्पत्ति केवी यह छे ? अने अहींथी मारे क्यां जनुं छे ? जे माणस आटलं पण, अहीं चितत्रे; तो तेवो केम दुःख- संसारथी वैराग्यवाळो न था ? (अर्थात् यायन !) पण, केटलाक महामिथ्याज्ञानिओ कहे छे के : - आ संसारमां अथवा मनुष्य- लोकमां जेबीरीने हाल मनुष्यो के, बीजां प्राणीओ जेवी अवस्थामा छे, तेवीजरीते भूतकाळमां स्त्रीपुरुष नपुंसक सौभाग्यवाळो, दुर्भाग्यवाळी, कुतरो, शीयाळ, ब्राह्मण, क्षत्री, विशुद्र वगेरे भेदोमां भोगवता हता; अने तेज भविष्यमां यवानुं छे. (आ प्रमाणे जैनेतर एक वादोनो मत को. ते लोकों एवं माने छे के जेम जीवो हालनी दशामां के, तेवा भूतकाळमां हता; अने हवे पछी रहेशे.) (वीजो अर्थ) जेनाथी बोजो पर (श्रेष्ट) नथी ते संयम अपर के, तेनाथी जेनुं चित्त रंगायलं छे, तेओ पूर्वे भोगवेलां विषयसुख विगेरेने (स्थूलभद्रमुनि माफक ) याद करता नथी. केटलाक रागद्वेपथी सुकायला भविष्यता देव संबंधी भोगोनी आकांक्षा राखता नथी. बळी आत्मा-रमणतामां रमता मुनिओने अमुक संसारी जीवने भूतकाळ सुखदुःख के, भविष्यनुं थवानुं सुखदुःख लक्ष्यमा रहेतुं नथी अथवा उत्तम ध्यानमां बेठेला साधुने केटलो काळ बीतीगया; अथवा केटलो बाकी रह्यो ते पण लक्ष्यमा नथी. अथवा लोकोत्तर पुरुषो जेओ रागद्वेषरहित छे, तेवा केवळी भगवंतो, अथवा चपूर्वी मुनिओ संसारी जीवने अनादि अनन्तकाळ सुधी ( अभव्य आश्रयी, अथवा वीजां बधा जीव आश्रयी ) दरेक कामां सुख विगेरे केलां हां, अने आवशे तेनी गणतरी पण कही शकता नथी. For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥४७३ ॥
SR No.020010
Book TitleAcharanga Stram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size5 MB
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