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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रम् वर्णन छे,) की कोइ पण कार्यमा गुरुग मोकस्यो होय, तो प्राणीजओने साडाण हायनी जग्यामां शोधतो तेने दुःख न थाय, | तेम यतनाथी चाले बळी:आचा० से अभिक्कममाणे पडिक्कममाणे संकुचमाणे पसारेमाणे विणिवट्टमाणे संपलिजमाणे एगया गुण. ॥६००nH समियस्स रीयओ कायसंफासं समणुचिन्ना एगतिया पाणा उदायंति, इहलोगवेयणविजावडियं, IN६००॥ जं आउट्टिकयं कंमं तं परिन्नाय विवेगमेह, एवं से अप्पमाएण विवेगं किहइ वेयवी ॥सू० १५८॥ ते साधु सदा गुरुनी आज्ञा प्रमाणे चालनारो होय छे, ते अभिक्रम जतो के पाछो फरतो, के हाथ पगने संकोचतो हाथ विगेरे अवयवने पसारतो, पधा अशुभ वेपारथी पाछो हटतो, होय त्यारे बरोबर रीते बधी बाजुए हाथ पग विगेरे शरीरना अवयवोने तथा तेना स्थानोने रजोहरण विगेरेथी पूंजीने गुरुकुलवासमां बसे, त्यां रहेनारनी विधि कहे छे. जमीन उपर एक उरु (जांघ) स्थापीने बीजो उचो राखीने से, निश्चळ स्थने तेम न बेसाय तो भूमि देखीने पूंजीने कुकडीना बेसवा प्रमाणे संकोचे, अथवा जरुर पढे लांबा पहोळा पण करे सुq होय; तो पण मोरती माफक सुवे. कारणके ते मोरने बीजा प्राणीनो भय होवाथी एक पासे सुबे, तथा हमेशा सचेतन सुवे, तेज प्रमाणे साधुने पामुं फेरव होय तो पण देखीने पूंजीने फेरवे एज प्रमाणे वधी क्रियाओ पुंजी प्रमार्जीने यतनाथी करे; आ प्रमाणे अप्रमादीपणे क्रिया करतां छतां अवश्य बनवाकाळने लीधे शुं थाय, ते कहे थे, कदाच ते गुणयुक्त साधुने अप्रमत्तपणे वा अनुष्ठान करवा सतां, जता आवतां संकोचतां पसारवां पाछा For Private and Personal Use Only
SR No.020010
Book TitleAcharanga Stram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size5 MB
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