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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५९४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छे, आ प्रमाणे गच्छमां पण योग्य विहार करनारो बीजा सीदाता (बेसी रहेला) ने विहार करावे छे, आ प्रमाणे एकला विचरताना दोषोने जाणीने तथा गच्छमां विचरताना गुणो जाणीने कारणना अभावमां पंडित अने उम्मरलायक साधुए पण एकलविहार न करवो, तो अगीतार्थ अने नानी उमरवाळाए तो क्यांथी एकल बिहार करवो ? शङ्का - जेनो संभव होय तेनो प्रतिषेध धाय, पण एकाकी विहारनो संभव नथी कारण के क्यो मूर्ख साधु सोबतीओने छोडीने वा दुःखो स्थान एवो एकल बिहार पसंद करे ! उत्तरः- कर्मपरिणतिने कंपण अशक्य नथी; ते बतावे छे. स्वतंत्रता जे रोगरूप छे, तेने औषधतुल्य माननाराने वधां दुःखोना मवाइमां तणाताने बचवा माटे सेतु [पूल] समान संपूर्ण कल्याणनुं एकस्थानरूप-शुभ आचारना आधाररूप-गच्छ रहेनारा साधुने प्रमादथी भूल थतां तेने उपको अपायः त्यारे, ते साधु सदुपदेशने न गणतां सारा धर्मने विचार्या विना कषाय-विपाकनी कढवाशने दीलमां न लेतां परमार्थने विचार्या विना कुल पुत्रता (खानदानी) पछवाडे मूकी वचन मात्रथी पण कोइने उपको आपतां सुखना वांछको बनवा माटे न गणाय एटली आपदाबाळा थवा माटे गच्छमांथी नीकळी जाय छे, अने पछी तेओ आ लोक तथा परलोकना अपायो (दुःखोने) मेळवे छे. कई छे:जह सायरंमि मीणा, संखोहं सायरस्स असहंता । णिति तओ सुकामी निग्गयमित्ता विणस्संति ॥ १॥ जेम सागरमा रहेलां माछलां समुद्रनो क्षोभ न सहन करीने सुख मेळवचा बहार जतां नाश पामे छे, तेज प्रमाणे सुखाभिलाषी For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५९४ ॥
SR No.020010
Book TitleAcharanga Stram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size5 MB
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