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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम ॥५४५॥ A जेनां दूर थयां ते निष्कर्मदर्शी छे, 'इह'-आ संसारमा मर्त्य [माणस) लोकमां जे निष्कर्मदर्शी छे! तेज बाह्य अभ्यंतर परिग्रह ४ आचा० * छेदनाराओ छे, शुं आधार लइने परिग्रहने छेदे अथवा निष्कर्मदर्शी बने ते कहे छे, 'कम्माणं' विगेरे मिथ्यात्व अविरति प्रमाद ॥५४५ कषाय योगोचडे जे कर्म बन्धाय छे. ते ज्ञानावरणीय विगेरेनुं सफळपणुं देखीने एटले ज्ञानावरणीयन फळ ज्ञान ढंकावं छे, दर्शनS/ आवरणीयनूं देखवामां विघ्नरुप छे, वेदनीयर्नु फळ रोग विगेरे दुःखो मुखो भोगववाना छे. प्रश्न:-बयां कर्मना विपाकना उदयने इच्छता नथी ? प्रदेश उदयने पण सदभाव होय छे, अने तप करवाथी क्षय पण थाय Pछे त्यारे कर्मर्नु सफळपणुं केवी रीते घटे. आचार्यनो उत्तरः-ते दोष नथी, अमने बधा प्रकारचें इच्छवापणु अहीं नथी, पण द्रव्य पूर्णपणुं मानीए छीए अने ते छेज, एटले दरेकने आठज कर्मनो उदय छे, एम नहि पण बधा जीव आश्रयी सामान्यथी जोतां आठे कर्मनो सदभाव छे तेथी ते कर्मनु अथवा कर्मनुं मूळ आश्रय छे. तेनाथी निश्चयथी नीकळी जाय, अर्थात्-आश्रव आवे तेवू • कृत्य न करे. भः-कोण न करे ? उ:-वेदविद् जेना वडे सघळु चर-अचरवेदाय, ते वेद जैनागम छे, तेने जाणे ते वेदविद् । जाणवो अर्थात् सर्वजना उपदेशमा वर्तनारो होय ते आ नवां कर्म न बांधे. आ अमारा एकलानो अमिपाय नथी; पण सर्वे तीर्थक४ करोना आ आशय छे ते बतावे छे. जे खलु भो ! वीरा ते समिया सहिया सयाजया संघऽदसिणो आओवरया अहातहं लोयं उवेहमणा पईणं पडिणं दाहिणं उईणं इय सच्चंसि परि (चिए) चिडिंसु, साहिस्सा १२. ५ २ % LSEX For Private and Personal Use Only
SR No.020010
Book TitleAcharanga Stram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size5 MB
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