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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४२९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सहीने साधु हंमेशां तप अने संयमना ऊपशममां उग्रमवाळो थाय (अर्थात् गृहस्थ उनाळामां के शियाळामां जीवोने दुःखरूपी पाणी छटवानुं के, अग्नि बाळवानुं पाप करे छे. तथा हायपीट करे छे, अथवा, बगीचा विगेरेमां जइ वनस्पतिने दुःख आपी पोते सुख मानी अहंकार करे छे ते साधुए न कां; पण सुखदुःखने समभावे सहन करीने समाधिमा रहेवुं.) हवे समाप्त करतां ए टंड तापने घणा प्रमाणां सहेवां ते बतावे छे. सीयाणि य उवहाणि य, भिक्खू हुंसि विसहियाइ । कामा न सेवियावा, सीओसणिजस्स निज्जुत्ती २११ परिषद्-प्रमाद उपशम-विरति सुखरुप जे पदो पूर्वे ठंडपणे यताव्यां; तथा परिषहतप उद्यम - कषाय शोकवेद अरतिरुप पूर्वे उष्णरूपे बतायां छे. ते बधांने मोक्षाभिलाषी साधुए सहेवां; पण, ते सुखनो हर्ष, अने दुःखनो शोक न करवो; ते परिषहोने सम्यक् दृष्टि जीव जो कामनी अभिलाषा दूर करे; तो तेनाथी सदन थाय छे, माटे, नियुक्तिकार कहे छे के: -- गमे तेवा परिषद ठंड के, उष्णताइना आवे; तोपण, ते कामो (खोटी इच्छाओ) मां चित्त न राखनुं तथा कुमार्गे न जनुं. आ प्रमाणे, त्रीजा अध्ययननो नामनिष्पन्न निक्षेपो को हवे, मूत्र अनुमममां अस्खलित विगेरे गुणवाळु निर्दोष वचन कहेतुं ते आछेसुत्ता अमुणी सया मुणीणो जागरंति (सूत्र० १०५) पूर्वसूत्र सानो संबंध बतावे छे, दुःखोना आर्त्त (चक्रावा) मां जे भमे ते दुःखी छे, एटले आ लोकमां जेओ भाव निद्रामां अज्ञानी जीवो सुताछे. ते दुःखोना चक्रावामां भमवाथी दुःखी छे. कनुं छे के:-- For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥४२९॥
SR No.020010
Book TitleAcharanga Stram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size5 MB
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