SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३५८॥ www.kobatirth.org आसं च छन्दं च विचि धीरे ? तुमं चेव तं सलमाहद्ध, जेण सिया तेण नोसिया, इणमेव नाव बुज्झंति जे जणा मोहपाउडा, थीभि लोए पवहिए, ते भो ! वयंति एयाई आययणाई, से दुःखाए मोहाए माराए नरगोए नरगतिरिक्खाए, सययं मूढे धम्मं नाभि जाणइ, उआहु वीरे, अप्पमाओ महामोहे, अलं कुसलस्स पमाएणं संतिमरणं संपेहाए भेउरधम्मं संपेहाए, नालं पास अलं ते एएहिं (सू० ८४ ) गुरु उत्तम शिष्यने कहे छे के— Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुं भोगोनी आशाओने तथा भोगोना अभिलापोने छोड, धी. (बुद्धि) तेना वडे राजे. ( शोभे ) ते धीर पुरुष जाणवो. तेवा उत्तम शिष्यने गुरुनो उपदेश लागे छे. तेथी कहे छे के हे शिष्य ! भोगमां दुःखज छे. अने तेमां सुखनी प्राप्ति नथी. (मृगतृष्णामां जळ नथी. पण जळनो खांटो आभास छे तेम भोगोमां सुख नथी. ) आ प्रमाणे शिष्यने गुरु समजावे छे. अथवा पोते आत्माने समजावे छे. के हे आत्मा तुं भोगनी आशा विगेरे शल्यने छोडीने परमशुभ संयम तेनुं सेवन कर. पण भोगोने विसरी जा कारण जे जे पैसा विगेरेना उपायथी भोग उपभोगनी आशा छे तेना वडे मळतो नथी. पटले जेना वडे भोगो मळे तेज धन विगेरेथी कर्मनी परिणति विचित्र होवाथी धार्या करतां उलडं थाय छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३५८॥
SR No.020009
Book TitleAcharanga Stram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy