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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आवा० ॥ १८७॥ www.kobatirth.org परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म संपराय, अने यथाख्यात एम पांच प्रकारे छे, चारित्राचारित्र ते श्रावकोने देशविरति स्थूल माणातिपात विगेरेनुं निचिरुप जाणवं, तथा दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, श्रोत्र, चक्षु, नाक, जीभ, स्पर्शन, ए दश प्रकारनी दोष रहित जीव द्रव्योनी लब्धि छे ते जीवनुं लक्षण छे तथा उपयोग ते साकार अने निराकार एम के प्रकारे ले साकार उपयोग आठ प्रकारनो, अने निराकार उपयोग चार प्रकारनो छे; योग ते मन, वचन, अने कायाए करीने ऋण प्रकारनो छे. मन परिणामथी उत्पन्न थयेला सूक्ष्म अध्यवसायो घणा प्रकारे छे । विश्वक् (जुदी जुदी) लब्धिभनो उदय ' प्रकट थाय छे. ते दुध मध, आसन विगेरे लब्धि के तथा ज्ञानावरणीयादि कर्मधी लड़ने अंतराय सुधी आठ कर्मनो पोतानी शक्तिनुं परिमाण से उदय छे, लेश्या ते कृष्णादि भेदवडे छ प्रकारनी छे, ते शुभ अने अशुभ कपाय, योग, अने परिणाम, विशेपक्षी उत्पन्न थाय छे ते, अने संज्ञा ते आहार, भय, परिग्रह, मैथुन, एवी रीते चार प्रकारे छे, अथवा दश भेद पूर्वे कल छे अथवा क्रोधादि चार भेदे छे ते तथा ' ओघसंज्ञा ' अने लोकसंज्ञा, छे अने श्वासोश्वास ते प्राण भने अपान छे काय तेने कहेवो के जे संसारनी प्राप्ति करावे ते क्रोधादिक अनन्तानुबंधी आदिक भेदवडे सोळ प्रकारनो छे ए वे गाथामा मूकेला वे इन्द्रिय विगेरे जीवोनां लक्षणो यथा संभव जाणवां ए ममाणे लक्षणनो समुदाय घडा विगेरेमां नथी, तेटला माये घट विगेरेमां पंडितजनो अचैतन्यपणुं स्वीकारे छे; कलां | लक्षणना समूहनो उपसंहार करवानी इच्छाथी अने परिमाणद्वार कहेवानी इच्छाथी नियुक्तिकार गाया कहे छे. लक्खणमेवं चेव उ, पयरस असंखभागमित्ता उ । निक्खमणे य पवेसे एगाईयावि एमेव ॥ १५८ ॥ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम ॥ १८७॥
SR No.020008
Book TitleAcharanga Stram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1932
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size5 MB
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