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[ आचाराङ्ग-सूत्रम् से बेमि, संति पाणा उदयनिस्सिा , जीवा अणेगे । इह खलु भो ! अणगाराणं उदयजीवा वियाहिया। सत्थं चेत्थ अणुवीइ, पास । पुढो सत्थं पवेइयं (२५) . संस्कृतच्छाया-सोऽहं ब्रवीमि सन्ति प्राणिनः उदकनिश्रिताः जीवाः अनेके । इह च खलु भो ! अनगाराणामुदकीवाः व्याख्याताः, शस्त्रञ्चात्रानुविचिन्त्य पश्य । पृथक् शस्त्रं प्रवेदितम् ।
शब्दार्थ-से बेमि=मैं कहता हूँ । संति पाणा प्राणी रहे हुए हैं। उदयनिस्सिया जल के आश्रित । जीवा अणेगे अनेकों जीव हैं। इह च खलु इस जैन शासन में । अणगाराणां साधुओं को । उदयजीवापानी स्वयं सजीव। वियाहिया कहा गया है । सत्थं चेत्थं= अकाय के शस्त्र । अणुवीइ विचार कर । पास-देख । पुढो भिन्न भिन्न । सत्थं शस्त्र । पवेइयां= कहे गये हैं।
भावार्थ--हे जम्बू ! पानी के अन्दर और भी अनेकों मत्स्यादि प्राणी रहे हुए हैं। परन्तु जैन शासन में तो पानी स्वयं सजीव कहा गया है ( इसलिए साधुओं के लिए शस्त्रपरिणत जल ही कल्पनीय कहा गया है ) अप्काय के अनेक भिन्न-भिन्न शस्त्र कहे गये हैं उनका पूरा विचार करना चाहिए।
विवेचन-कई वादियों के मत में जलवर्ती बेइन्द्रियादि जीव ही जीवरूप माने गये हैं। वे पानी को जीवरूप नहीं मानते किन्तु जैनागमों में पानी स्वयं भी सजीव कहा गया है। यहाँ यह प्रश्न होता है कि अगर जलमात्र सजीव है तो जलपान करने से साधु भी प्राणातिपात के भागी होने चाहिये । इसका यों समाधान किया जाता है कि जैनागमों में तीन तरह के अप्काय कहे गये हैं १-सचित्त २-मिश्र और अचित्त । इनमें जो अचित अप्काय है वही साधुओं के लिये कल्पनीय है, सचित्त और मिश्र नहीं। फिर प्रश्न होता है कि यह अचित्त कैसे होता है ? स्वाभाविक अचित्त होता है या शस्त्र के संबन्ध से ? तो कहा जाता है कि दोनों तरह से अचित्त होता है । जो स्वभावतः अचित्त होता है तथा जिसमें बाह्य शस्त्र का सम्पर्क नहीं हुआ है वह जल केवली, मनःपर्यवज्ञानी एवं अवधिज्ञानी अचित्त जानते हुए भी ग्रहण नहीं करते क्योंकि उनके ऐसा करने से मयांदाभङ्ग होने का डर रहता है। जैसा कि गुरुपरम्परा से सुना जाता है कि भगवान महावीर ने पूर्ण निर्मल जल से उल्लसित तरंगों वाला, काई तथा त्रसादि जीव रहित और जिसमें पानी के सभी जीव अचित्त हो गये थे ऐसा एक अचित्त जल से भरा हुआ बड़ा भारी कुण्ड देखकर भी, प्यास से पीड़ित अपने शिष्यों को वह पानी पीने की आज्ञा न दी। कारण यह है कि अचित्त पानी का निश्चय विशिष्टज्ञान द्वारा ही हो सकता है श्रतज्ञान द्वारा नहीं। साधुओं को श्रतज्ञान के आधार से ही चलने का होता है इसलिए श्रुतज्ञान की प्रमाणता के लिये और मयादा रक्षण के लिए प्रभु ने वह अचित्त जल पीने की आज्ञा न दी। सामान्य श्रतज्ञानी तो ईन्धनादि वाह्य शस्त्रों के सम्पर्क से ही जल को अचित्त हुआ जानता है इसलिए बाह्यशस्त्र से जिसके वर्ण, गंध, रस और स्पर्श बदल गये हों वही जल मुनियों के लिये कल्पनीय है । अप्कायशस्त्र ईन्धन, उसिंचन, उपकरण धोना आदि अनेक प्रकार के कहे गये हैं। सो स्वयं विचारने योग्य हैं। 'पुढोऽपासं पवेदितं ऐना पाठांतर भी मिलता है
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