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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६१४ ] [ आचाराङ्ग-सूत्रम संस्कृतच्छाया - अवमौदर्ये शक्नोति कर्तु अस्पृष्टोऽपि भगवान् रोगैः । स्पृष्टो वा स्पृष्टो वा न सोऽभिलषति चिकित्साम् ॥१॥ संशोधनश्च वमनश्च गात्राभ्यङ्गनञ्च स्नानञ्च । संबाधनं च न तस्य कल्पते दन्तप्रक्षालनं च परिज्ञाय ॥ २ ॥ विरतो ग्रामधर्मेभ्यः रीयते माहनो बहुवादी | शिशिरे एकदा भगवांश्छायायां ध्याय्यासीत् ॥३॥ श्रातापयति ग्रीष्मेषु तिष्ठत्युत्कुटुको ऽभितापम् । अथ यापयति स्म रूक्षणौदन मन्थुकुल्माषेण 11811 शब्दार्थ — भगवं- भगवान् । रोगेहिं अपुट्ठेवि=रोगों से स्पृष्ट न होने पर भी । श्रोमोयरियं = अल्प भोजन | चाएइ = करते थे । श्रपुट्ठे वा = रोग न होने पर । पुट्ठे वा = या होने पर । से=चे भगवान् | तेइच्छं=चिकित्सा की । नो साइज - अभिलाषा नहीं करते थे ||१|| संसोडणं च = विरेचन - जुलाब | वमनं वमन | गाय भंगणं- शरीर पर तेल-मर्दन करना । सिखाणं च = स्नान करना | संवाहणं - हाथ पैर आदि दबवाना | दन्तपक्खालणं च और दाँत साफ करना आदि । परिन्नाय = सारे शरीर को अशुचिमय जानकर । न से कप्पे उन्हें नहीं कल्पता थाअर्थात् वे ये क्रियाएँ नहीं करते थे ||२|| माह = वे माहन | गामधम्मेहिं - इन्द्रियों के धर्मों सेविषयों से | विरए=पराङ्मुख थे । श्रबहुवादी - अल्पभाषी होकर | रीयइ = विचरते थे । एगया = कभी | भगवं=भगवान् । सिसिरम्मि - शिशिर ऋतु में । छाया = छाया में | भाई सी य= ध्यान करते थे ||३|| गिम्हाणं - ग्रीष्म ऋतु में । अभितावे = तापाभिमुख होकर । उक्कुडए=उत्कट आसन से | अच्छइ=बैठते । श्रयावइ य और श्रातापना लेते । श्रदु = अनन्तर | लुहे रूक्ष श्रोयणमंथुकुम्मासेणं=चावल, बेर का चूर्ण और उड़द आदि से | जावइत्थ - निर्वाह करते थे |४ ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अल्पभोजन करते थे । भगवान् का भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर नीरोग होते हुए भी - शरीर स्वाभाविक नीरोग रहता था । यदि कर्मोदय से आगन्तुक व्याधि होती तो भी वे चिकित्सा के द्वारा उसका प्रतीकार करने की इच्छा नहीं करते थे । ( रोग होने पर या न होने पर शरीर को पुष्ट करने के लिए भगवान् औषधि का प्रयोग नहीं करते थे ) ॥ १ ॥ ( प्रतीकार-वृत्ति से परे होने के कारण ) जुलाब लेना, वमन करना, शरीर पर तेल-मर्दन करना, स्नान करना, हाथ-पांव आदि दबवाना, दांत साफ करना इत्यादि क्रियाओं का भगवान् ने ( सारे शरीर को अशुचिमय जानकर ) त्याग कर दिया था । ( भगवान् की जीवन-चर्या ऐसी नैसगिक थी कि उन्हें इन सब क्रियाओं को करने की आवश्यकता ही नहीं थी ). ॥२॥ वे श्रमण भगवान् इन्द्रियों के धर्मों-विषयों से विरक्त रहते थे और अल्पभाषी होकर विचरते थे । ( प्रायः मौन रहते थे वे शिशिर ऋतु में शीतल छाया में धर्मध्यान- शुक्लध्यान ध्याते थ ||३|| वे श्रीष्म ऋतु में ताप के सामने मुख रखकर ( सूर्य के श्रभिमुख होकर ) उत्कट आदि आसन करके याता For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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