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मईमया ।
एसविही अणुकन्तो माहणेण बहुसो पडिने भगवया एवं यन्ति || १४ || ति बेमि ||
[ आधाराङ्ग-सूत्रम्
संस्कृतच्छाया - शूरः संग्रामशीर्षे वा संहृतस्तत्र स महावीरः ।
प्रतिसेवमानश्च परुषान् अचलो भगवान् रीयते स्म || १३|| एष विधिरनुकान्तो माहनेन मतिमता । बहुशोऽप्रतिज्ञेन भगवता एवं रीयन्ते ॥१४॥ इति ब्रवीमि ।।
शब्दार्थ - संगामसीसे वा संग्राम के अग्रभाग पर । संवुडे सूरो-कवच से रचित शूरवीर (शस्त्रों से छिन्न-भिन्न नहीं होता है इसी तरह) तत्थ = लाढ देश में से महावीरे वह भगवान् महावीर | फरुसाई= कठोर दुखों को । पडिसेवमाणे = झेलते हुए भी । अचले भगवं वै भगवान् मेरु की तरह दृढ़ होकर । रीइत्था = विचरण करते रहे ॥ १३॥ चौदहवीं गाथा का शब्दार्थ पूर्ववत् ।
इति तृतीयोदेशकः
भावार्थ - जिस प्रकार कवच से सुसज्जित वीर - सुभट युद्ध के अग्रभाग पर रहता हुआ भी शस्त्रों सें छिन्न-भिन्न नहीं होता है इसी प्रकार धैर्य से सुरक्षित भगवान् भी परीषहों को फेलते हुए तनिक भी विचलित न हुए । वे मेरु की भांति अडोल रहकर संयममार्ग में विचरण करते रहे ||१३|| मतिमान् माहन भगवान् महावीर ने बिना किसी कामना के इस विधि का आचरण किया है । अन्य मुमुक्षु भी इस विधि का आचरण करते हैं। ऐसा मैं कहता हूँ ॥१४॥
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