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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्ययन तृतीय उद्देशक ] [६११ उत्क्षिप्य निहतवन्तः अथवाऽऽसनात् स्खलितवन्तः। व्युत्सृष्टकायः प्रणतः आसीद् दुःखसहो भगवानप्रतिशः ॥१२॥ शब्दार्थ-अपडिन नियत निवास आदि की प्रतिज्ञा न करने वाले । उवसंकमंत भोजन या स्थान के लिए वस्ती में आने का विचार करने वाले भगवान् के । गामतियम्मि अप्पत्तंग्राम के पास पहुँचते न पहुँचते तक (तो ग्रामवासी) पडिनिक्खमित्त ग्राम से बाहर आकर । लूसिंसु भगवान् को मारते और कहते कि । एयाओ यहाँ से । परं-दूसरे स्थान पर। पलेहित्ति-चला जा ॥६॥ तत्थ वहाँ । दण्डेण लकड़ी से। अदुवा मुट्ठिणा-अथवा मुष्टियों से। अदुवा कुन्तफलेण-अथवा भाले की नौंक से। अदु लेलुणा अथवा मिट्टी के ढेले से । कवालेख घड़े की ठिकरियों से । हयपुव्यो मारते थे। हन्ता-हन्ता-मार-मार कर । बहवे कंदिसुबहुत से अनार्य कोलाहल करते थे। ॥१०॥ मंसाणि छिन्नपुव्वाणि कई बार वे भगवान् के शरीर से मांस काट लेते थे । एगया-कभी । कायं उट्ठभिया शरीर पर आक्रमण कर । परीसहाई लुञ्चिसुनाना प्रकार के कष्ट थे । अदुवा अथवा । पंसुणा उवकरिसु=धूल बरसाते थे॥११॥ उच्चालइय% ऊँचा उठाकर । निहणिंसु-नीचे पटक देते थे। अदुवा आसणाओ खलइंसु-अथवा आसन से गिरा देते थे । अपडिन्ने बिना किसी दुख-प्रतीकार की भावना के । दुक्खसहे दुख सहन करने वाले । भगवं भगवान् । बोसहकाय पणयासी-शरीर की ममता को छोड़कर परीषह सहन करते थे॥१२॥ भावार्थ-नियत निवास आदि की प्रतिज्ञा न करने वाले भगवान् भोजन या स्थान की गवेषणा करने के विचार से ग्राम के सन्निकट पहुँचते या न पहुँचते कि कितनेक अनार्य लोग गांव से बाहर निकलकर सामने जाकर भगवान् को मारने लगते और कहते कि “यहां से दूसरी जगह चला जा ॥8॥ लाढदेश के वे अनार्य लोग लकड़ी से मुक्कों से अथवा भाले की नौंक से या ईट-पत्थर से अथवा घट के खप्पर से मारते थे और ऊपर से चिल्लाते थे कि देखो ! देखो ! यह कैसा है ! इत्यादि ॥१०॥ कभी-कभी वहां रहने वाले अनार्य लोग भगवान् के शरीर का मांस भी काट लेते थे । कभी उनके शरीर पर आक्रमण कर नाना प्रकार के कष्ट देते थे और उन पर धूल की वर्षा करते थे ॥११॥ कभी भगवान् को ऊँचा उठाकर नीचे जमीन पर पटक देते थे । कभी ध्यान के लिए गोदोहासन या वीरासन से बैठे होते तो धक्का देकर जमीन पर लुढका देते थे । परन्तु इन सब परिस्थितियों में भी कष्टों का प्रतीकार करने का संकल्प तक न करने वाले कष्ट-सहिष्णु भगवान् शरीर के ममत्व को दूर कर समभावपूर्वक परीषह सहन करते थे ॥१२॥ सूरो संगाम सीसे वा संवुडे तत्थ से महावीरे । पडिसेवमाणे फरूसाइं अचले भगवं रीइत्था ॥१३॥ For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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