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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६०४] [ आचाराग-सूत्रम् कूल परीषहों में भी वे भगवान् हर्ष और शोक से परे रहे । वे विरल-भाषी-प्रायः मौनव्रती होकर संयम में विचरण करते रहे ॥६-१०॥ स जणेहिं तत्थ पुच्छिसु एगचरा वि एगया राम्रो । अव्वाहिए कसाइत्था पेहमाणे समाहिं अपडिन्ने ॥११॥ अयमंतरंसि को इत्थ ? अहमंसि त्ति भिक्खु श्राह? । अयमुत्तमे से धम्मे तुसिणीए कसाइए झाइ ॥१२॥ संस्कृतच्छाया–स जनस्तत्र (पृष्टः), पप्रच्छुः एकचरा अपि एकदा रात्रौ । अव्याहृते कषायिताः प्रेक्षमाणः समाधिमप्रतिक्षः ॥११॥ अयमन्तः कोऽत्र ? अहमस्मीति भिक्षुराहृत्य । अयमुत्तमः स धर्मः तूष्णीकः कषायिते ध्यायति ॥१२॥ शब्दार्थ-एगया कमी दिन में या । राम्रो रात्रि में । एगचरा वि=अकेले घूमने वाले चोर-जार आदि। पुच्छिसु-पूछते थे कि तू कौन है ? स जणेहि वह भगवान् मनुष्यों के द्वारा पूछे जाने पर। अव्वाहिए उत्तर नहीं देते थे तो । कसाइत्था-वे क्रोधित होकर मारने लगते । अपडिन्ने अप्रतिज्ञ-बदला न लेने वाले भगवान् । समाहिं पेहमाणे समाधि में लीन होकर सब सहन करते ॥११॥ अयमंतरंसि को इत्थ यहाँ अन्दर कौन है ? ऐसा पूछे जाने पर। अहमंसि त्ति भिक्खु–मैं भिनु हूँ ऐसा । आहटु–उत्तर देते । कसाइए उस गृहस्थ के कुपित होने पर भी । अयमुत्तमे से धम्मे यह उत्तम आचार है ऐसा मानकर । तुसिणीए-चुप-चाप । भाइ= ध्यान में लीन रहते ॥१२॥ भावार्थ-कमी दिन में या रात्रि के समय भगवान् निर्जनस्थान में कायोत्सर्ग करके खड़े होते उस समय चोर, जार या अन्य लोग आकर उन्हें पूछते कि तू कौन है ? क्यों खड़ा है ? ध्यानमग्न भगवान् की ओर से उत्तर न मिलने पर वे लोग क्रोध से भर जाते और मारने लगते परन्तु वे योगीश्वर बदला लेने का विचार तक न करते हुए समाधि में लीन रहते ॥११॥ जब भगवान् चिन्तन-मन्थन में मग्न होते उस समय कोई आकर पूछता कि यहां कौन खड़ा है ? तो भगवान् ( ध्यान में न होते तो) उत्तर देते कि “मैं भिक्षु हूँ"। ऐसा कहने पर यदि वह क्रोध से भरा हुआ उस स्थान को छोड़ने के लिए कहता तो भगवान् वहां से चल देते थे। अथवा ( जाने का अवसर न होने पर ) उस गृहस्थ के कुपित होने पर भी भगवान् मौन रहकर यह प्रधान आचार है ऐसा मानकर सब कुछ सहन करने के लिए तैयार होकर ध्यान-लीन हो जाते थे ॥१२॥ For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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