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नवम अध्ययन प्रथम उद्देशक ]
काम लिया । भगवान् प्रासुक जल का ही उपयोग करते । भगवान् ने सचित्त आहार का भी त्याग कर दिया था। गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी उन्होंने सावंद्य प्रारम्भ का त्याग किया । न केवल त्रस जीवों की ही अपितु पृथ्वी, अप, तेज, वायु और वनस्पति के जीवों की भी वे यतना करने लगे। इस तरह प्राणातिपात का उन्होंने परिहार किया । शेष व्रतों की भी इसी तरह पाराधना प्रारम्भ कर दी। गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी भगवान एकत्व-भावना का चिन्तन करते थे। वे अपने आपको अकेला समझते थे । वे परिवार आदि में रहते हुए भी उनसे अलिप्त रहते थे। क्रोध श्रादि कषायों पर उन्होंने काबू कर लिया था। वे कूर्म की तरह इन्द्रियों का गोपन करते थे। वे सम्यक्त्व भावना से भावित थे। उनकी इन्द्रियाँ और मन शान्त थे । त्रस ही नहीं अपितु अव्यक्त चेतना वाले सूक्ष्म स्थावर जन्तुओं को भी सुख-दुख का संवेदन होता है यह जानकर उन्होंने सब प्रारम्भ का परित्याग कर दिया था। इस तरह गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी वे योग की साधना करते थे । दो वर्ष तक साधना करने के पश्चात् भगवान् ने प्रव्रज्या अङ्गीकार की।
अदु थावरा य तसत्ताए, तसा य थावरत्ताए । अदुवा सव्वजोणिया सत्ता कम्मुणा कप्पिया पुढो बाला॥१४॥ भगवं च एवमन्नेसी सोवहिए हु लुप्पई बाले ।
कम्मं च सव्वसो णचा तं पडियाइक्खे पावगं भगवं ॥१५॥ संस्कृतच्छाया-अथ स्थावराश्च वसतया, त्रसाश्च स्थावरतया।
अथवा सर्वयोनिकाः सत्वाः कर्मणा कल्पिताः पृथग्बालाः ॥१४॥ भगवांश्चैवममन्यत सोपधिकः खलु लुप्यते बालः ।
कर्म च सर्वशो ज्ञात्वा तत् प्रत्याख्यातवान् पापकं भगवान् ॥१५॥ शब्दार्थ-अ-अनन्तर । थावरा-स्थावर जीव । तसत्ताए सरूप में उत्पन्न हो सकते हैं। तसा य थावरत्ताए बस भी स्थावर रूप में उत्पन्न हो सकते हैं । अदुवा अथवा । सत्ता=जीव । सव्वजोणिया सब योनियों में उत्पन्न होने के स्वभाव वाले हैं । बालारागद्वेष युक्त जीव । कम्मुणा-अपने किये हुए कर्म के कारण । पुढो-पृथक २ रूप से, विविध योनि वाले । कप्पिया-माने गये हैं ॥१४॥ भगवं=भगवान् ने । एवमन्नेसी=ऐसा जाना कि । सोवहिए= द्रव्य-भाव उपधि वाला । बाले अज्ञ जीव । लुप्पइ-क्लेश पाता है । कम्मं च कर्म को । सव्वसो नच्चा भलीभांति जानकर ।. भगवं भगवान् ने । तं पावर्ग=कर्म और उसके कारण पाप को । पडियाइक्खे त्याग दिया ॥१५॥
भावार्थ-स्थावर जीव, सरूप में और त्रसजीव स्थावररूप में भी उत्पन्न होते हैं । अथवा सभी संसारी जीव सब योनियों में पैदा होने के स्वभाव वाले हैं । अज्ञानी जीव अपने-अपने कर्म के अनुसार पृथक २ योनियों को धारण करते हैं ॥१४॥ भगवान् वर्धमान स्वामी ने ऐसा जाना कि अज्ञ जीव बाह्य और आन्तरिक उपधि के कारण कर्म से लिप्त होकर क्लेश पाता है । इस कर्म के रहस्य को पूरी तरह जानकर कर्म और उसके कारण पाप का भगवान् ने त्याग कर दिया ॥१५॥
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