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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५६४] [आचाराग-सूत्रम् एगचगए एकत्व भावना भावित थे। पिहियचे क्रोधादि कषायों को बुझाए हुए थे। अहिबायदंसणे सम्यक्त्व भावना भावित थे। सन्ते इन्द्रियों और मन से शान्त थे ॥११॥ पुढविं च-पृथ्वीकाय को। आउकायं च-अपकाय को। तेउकायं च अग्निकाय को । वाउकायं च% वायुकाय को । पणगाई-लीलन-फूलन, सेवार आदि को । बीयहरियाई-बीज और अन्य वनस्पतिकाय को। तसकायं चत्रसकाय को। सव्वसो नच्चा सब प्रकार से जानकर ॥१२॥ एयाई सन्ति-पृथ्वीकाय आदि जीव है ऐसा। पडिलेह-विचार कर। चित्तमन्ताई-उन्हें सचित्त । अभिन्नाय जानकर । इय संखाय-ऐसा समझ कर । से महावीरे-वह महावीर भगवान् । परिवजिय प्रारम्भ को छोड़कर । विहरित्था विचरने लगे ॥१३॥ ____ भावार्थ-(माता-पिता का स्वर्गवास होने के पश्चात् भगवान् अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार दीक्षाधारण करने के लिए तत्पर हुए । तब उनके ज्येष्ठ भाई नन्दीवर्धन आदि ने कहा कि घाव पर नमक न छिड़किये । भगवान् ने दो वर्ष तक और गृहस्थाश्रम में रहना स्वीकार किया किन्तु) उन दो वर्ष से कुछ अधिक समय तक भगवान् ने सचित्त जल का पान नहीं किया और अन्य काम में भी नहीं लिया । भगवान् उस गृहस्थ अवस्था में भी एकत्व-भावना का चिन्तन करते थे, क्रोधादि कषायों को उपशान्त किए हुए थे, सम्यक्त्व भावना से भावित थे और इन्द्रियों तथा मन से शान्त थे ॥११॥ पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, लीलन-फूलन, सेवार आदि बीज तथा अन्य वनस्पतिकाय और त्रसकाय को सब प्रकार से जानकर-इन सब जीवों का अस्तित्व है और उनमें चेतना है ऐसा जानकर उनकी हिंसा का त्याग करके वह महावीर विचरने लगे ।।१२-१३।। विवेचन-त्यागमार्ग यकायक अंगीकार नहीं किया जा सकता । इसके लिए भी साधना की आवश्यकता होती है । यदि आवेशवश या अन्य कारणवश यकायक त्यागमार्ग स्वीकार कर लिया जाता है तो उसका परिणाम अनिष्ट भी आ सकता है । यह हो सकता है कि आवेश के कम हो जाने और त्यागमार्ग में आने वाली कठिनाइयों के कारण वह साधक न इधर का रहे और न उधर का । इसलिए त्यागमार्ग जैसा कठिन मार्ग स्वीकार करने से पूर्व गृहस्थाश्रम में रहते हुए त्यागी की क्रियाओं का अभ्यास कर लेना आवश्यक होता है। भगवान ने भी दीक्षा-धारण करने से पूर्व दो वर्ष से कुछ अधिक समय तक त्यागमार्ग की क्रियाओं का अभ्यास किया, यही इन गाथाओं में बताया गया है । भगवान ने गर्भावस्था में ही यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि माता-पिता के जीवित रहने तक मैं दीक्षा नहीं लूँगा । जब भगवान् के माता-पिता का स्वर्गवास हो गया तब अपनी प्रतिज्ञा की पूर्ति होने से वे दीक्षा धारण करने के लिए तय्यार हुए । इस पर उनके ज्येष्ठ बन्धु नन्दीवर्धन आदि ने प्रार्थना की किअभी दीक्षा धारण कर आप घाव पर नमक न छिडकिए । अवधिज्ञानी भगवान् ने उनका कथन स्वीकार किया और दो वर्ष पर्यन्त गृहस्थाश्रम में रहना मंजूर कर लिया । उन दो वर्षों में भगवान गृहस्थाश्रम में भी योगी की तरह रहे। उन्होंने त्यागमार्ग की क्रियाओं का अभ्यास कर लिया। इन वर्षों में भगवान ने सचित्त जल का उपभोग नहीं किया। न तो सचित्त जल का प्रान किया और न पादप्रक्षालन आदि में For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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