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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५८८] [आचाराग-सूत्रम् बन्धन को तोड़कर वे प्रव्रज्या अंगीकार करने के लिए तत्पर हुए । वे भावी भगवान्, त्रिलोकपूजित देवाधिदेव तीर्थकर बनने वाले थे, उनके द्वारा तीर्थ का प्रवर्तन होने वाला था अतएव वे राजसी ऐश्वर्य को ठुकरा कर, सर्व वस्त्रालंकार का परित्याग करके, पञ्चमुष्टि लोच करके हेमन्तऋतु के मार्गशीर्ष कृष्णादशमी को पूर्व की ओर नमती हुई छाया के समय-अन्तिमप्रहर में दीक्षा अङ्गीकार करके सामायिक चारित्र ग्रहण करते हैं । दीक्षा ग्रहण करते ही भगवान को मनः पर्याय ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् उसी समय भगवान् क्षत्रियकुण्ड ग्राम से विहार कर एक मुहूर्त दिन शेष रहते हुए कुमारग्राम में श्रा पहुँचे। दीक्षा अंगीकार करते ही विहार करके भगवान ने यह सूचित किया कि दीक्षा-धारण करने पर उस स्थान पर नहीं रहना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से नवदीक्षित के कुटुम्बियों के मोहोत्पादक सहवास के कारण नवदीक्षित के वर्द्धमान परिणामों में हानि होने की और मोहोदय होने की सम्भावना रहती है। अतः दीक्षा-धारण करने के पश्चात् विहार करने की प्रणाली प्रचलित होने का ऐसा श्राशय प्रतीत होता है। वहाँ पहुँचने पर भगवान् ने नाना प्रकार के अभिग्रह धारण किये और देव, मनुष्य तथा तिर्यञ्च सम्बन्धी उपसर्गों और परीषहों को अविचलभाव से सहन करने की प्रतिज्ञा की । यावज्जीवन प्रतिज्ञा के पारगामी भगवान् ने घोर परीषह-उपसगों को समभावपूर्वक सहन किया। साधिक बारह वर्ष पर्यन्त कठिनतम तपश्चर्या की, मौनव्रत धारण किया, अनार्यदेश में भयंकर कष्ट सहन किये और अन्त में प्रबल पुरुषार्थ के द्वारा कर्म-रिपुत्रों को परास्त कर निरावरण केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त किया। भगवान के सामायिक चारित्र स्वीकार करने के पश्चात् ही इन्द्र ने उनके शरीर पर देवदूष्य वन डाल दिया । भगवान ने सब प्रकार के वस्त्रों का पहले ही त्याग कर दिया था तदपि निःसंग अभिप्राय से यह समझ कर कि दूसरे मुमुक्षु धर्मोपकरण के बिना धर्म का अनुष्ठान करने में समर्थ नहीं होंगे इसलिए मध्यस्थवृत्ति से भगवान् ने वह वस्त्र अपने शरीर पर रहने दिया। भगवान तो सर्वथा वखरहित होकर साधना करने में समर्थ थे, वे देवदूष्य को हटा सकते थे फिर भी उसे तेरहमास पर्यन्त रख कर भगवान् ने यह बताया कि एकान्त अचेलता या सचेलता का श्राग्रह रखना उचित नहीं है । आत्मिक साधना में अचेलता या सचेलता का विशेष महत्त्व नहीं है । अचेलता में महत्त्व का अनुभव करना और सचेलता में हीनता मानना उचित नहीं है । यह सूचित करने के लिए ही सर्ववत्र त्यागी भगवान् ने देवदूष्य का अमुक काल पर्यन्त त्याग नहीं किया ऐसा अनुमान सहज ही होता है। इन्द्र के द्वारा डाले गये देवदूष्य का उपभोग करने का भगवान् ने कदापि विचार नहीं किया। उन्हें ऐसा विचार कभी नहीं हुआ कि मैं इस वस्त्र के द्वारा हेमन्त ऋतु की ठिठुराने वाली सर्दी में अपने शरीर को ढंक लंगा अथवा इस वन से लज्जा ढक लँगा। भगवान् ने दीक्षा के समय ही सब वनों का परित्याग कर दिया था अतः प्रतिज्ञा-पालक भगवान् ने उस वस्त्र के उपभोग की कभी इच्छा नहीं की। उपभोगेच्छा के बिना ही अनुधार्मिक व्यवहार समझकर भगवान् ने उस वन को शरीर पर रहने दिया अनुधार्मिक का अर्थ यह है कि अन्य तीर्थक्करों से भी यह समाचीर्ण है। जैसा कि कहा गया है:- . से बेमि जे य अईया जे य पडुप्पन्ना जे य प्रागमिस्सा अरिहन्ता भगवन्तो जे य पञ्चयन्ति, जे अ पव्वइस्लन्ति सम्वेते सोवहीधम्मो देसिअचो त्ति कटु तित्थधम्मयाए एमाणुधम्मिगत्ति एगं देवदसमायाए पव्वइंसु वा पव्वयन्ति वा पव्वइस्लन्ति वा। .. For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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