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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्ययन प्रथम उद्देशक ] सब प्रकार के वस्त्र, अलंकार आदि उपधि का त्यागकर निकले हुए भगवान् के शरीर पर इन्द्र ने देवदूष्य वस्त्र डाल दिया । मगर भगवान् ने यह विचार नहीं किया कि इस वस्त्र से मैं हेमन्त ऋतु में अपने शरीर को ढंक लँगा । भगवान् यावज्जीवन अपनी प्रतिज्ञा के अथवा परीषद और उपसर्ग के पारगामी थे । भगवान् का यह वस्त्र-धारण उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकरों के द्वारा समाचीर्ण होने से प्रानुधार्मिक है। अर्थात् परम्परागत कल्य है ॥२॥ दीक्षा अंगीकार करते समय धारण किये सुगन्धित वस्त्रों और सुगन्धित देवदूष्य के गन्ध से आकृष्ट होकर चार मास से कुछ अधिक समय तक बहुत से भौरे आदि प्राणी आकर भगवान् के शरीर पर चढ़े और शरीर पर चढ़कर डंक मारने लगे ॥३॥ एक वर्ष और कुछ अधिक एक मास तक स्थितकल्प मानकर भगवान् ने उस वस्त्र का परित्याग नहीं किया। इसके पश्चात् उस वस्त्र का त्याग करके वे अनगार सर्वथा अचेल होकर विचरने लगे ॥४॥ विवेचन-जिस प्रकार अाकाश-दीप समुद्र में भटकते हुए जहाजों को पथप्रदर्शन करने वाला होता है उसी प्रकार महापुरुषों की जीवन-चर्या दूसरे प्राणियों के लिए आदर्श रूप होती है। महापुरुषों के जीवन आकाश-दीप की तरह मार्ग भूले हुए व्यक्तियों के लिए पथप्रदर्शन करने वाले होते हैं । श्रमण भगयान महावीर का साधना-जीवन साधना-मार्ग के पथिकों के लिए आकाश-दीप और प्रकाश-स्तम्भ के समान है। भगवान का साधना-जीवन उन पर आने वाले परीषह और उपसगों का शृङ्खलाबद्ध इतिहास है । भयंकर से भयंकर कष्टों के श्रा पड़ने पर भी तनिक भी विचलित न होना कैसी महावीरता है ! महाधीर इसीलिए महावीर कहलाए कि वे परीषहों और उपसगों के बीच पर्वत की तरह अडोल रह सके और दृढ़ता के साथ कमरिपुत्रों के साथ संग्राम करते हुए प्रात्मबल के कारण विजयी हुए। कहा जाता है कि श्रमण भगवान महावीर के पूर्व जन्मोपार्जित कर्म अन्य सब तीर्थङ्करों के सम्मिलित कर्मों की अपेक्षा भी अधिक गुरुतर थे। इतने गुरुतर कमों के होते हुए भी भगवान ने अपने प्रबल पुरुषार्थ, दीर्घ तपश्चरण और कठोर कट-सहिष्णुता के कारण उन पर विजय प्राप्त की। भगवान् की कर्मविजय और आत्मविजय की सत्य कहानी सब मुमुक्षुओं के लिए आदर्शरूप है अतएव इस अध्ययन में भगवान के साधना-जीयन का वृत्तान्त दिया गया है। आर्य सुधर्मस्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी को सम्बोधन कर कहते हैं कि मैं उन अनन्यसदृश महापुरुष की जीवन-चर्या का वृत्तान्त अपनी मनोकल्पना से नहीं किन्तु श्रुत के अनुसार या जैसा मैंने मुना है वैसा तुम्हें कहूँगा सो ध्यानपूर्वक श्रवण करो। सिद्धार्थ-तनय, त्रिशलानन्दन, राजकुमार वर्द्धमान को सांसारिक सुखोपभोग के सब साधन उपलंब्ध थे। सुख-वैभव की गोद में पले होने पर भी उन्हें वह सब असार प्रतीत हुआ । राजकीय वैभव, स्त्री, कुटुम्ब-परिवार, घखालंकार श्रादि सब बन्धनरूप मालूम होने लगे। वे श्रात्मकल्याण और जनकल्याण के लिए उत्सुक हो उठे। विश्वबन्धुत्व की भावना से उनका अन्तःकरण लहलहा उठा। वे अब अपने आपको संकुचित क्षेत्र में सीमित न रख सके। अतएव राजकीय वैभव, धन, कुटुम्ब-परिवार आदि के For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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