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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्ययन अष्टम उद्देशक ] [५७७.. वैसा हलन-चलन वह कर सकता है । इस इङ्गितमरण को अंगीकार करने वाले महापुरुष ही होते हैं अतएव शरीर की सुविधा के अनुसार चेष्टा करने पर भी उनमें अन्यथा भाव या विकार की सम्भावना नहीं होती। ____शंकाकार कहता है कि शरीर के समस्त व्यापारों को रोक कर शुष्क काष्ठ की तरह अचेतन की भांति पड़े रहने से प्रचुरतर पुण्य का लाभ होना कहा गया है, क्या यह ठीक है ? इसका समाधान करते हुए टीकाकार कहते हैं कि ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है। जिसके अध्यवसाय विशुद्ध हैं वह अपनी शक्ति के अनुसार भार उठावे और उसे अन्त तक भलीभांति निभावे तो उसे भी उसके समान ही कर्मक्षय हो सकता है । तात्पर्य यह है कि यदि अध्यवसाय विशुद्ध हैं तो इङ्गितमरण में हलन-चलन करते हुए भी पादपोपगमन की भांति कर्म का क्षय हो सकता है। जिसमें जितना भार उठाने की शक्ति है वह उतना भार उठाता है और अन्त तक उसे निभाता है तो वह अवश्य कर्मक्षय का अधिकारी है। अथवा इंगितमरण अंगीकार करने पर भी यदि साधक में विशिष्ट सामर्थ्य है तो वह यहाँ भी पादपोपगमन की तरह निष्क्रिय रह सकता है। यदि ऐसा सामर्थ्य नहीं है तो हलन-चलन करता हुआ भी समाधि को कायम रखने से वह कर्मों का अन्त कर सकता है। श्रासीणेऽणेलिसं मरणं इन्दियाणि समीरए। कोलावासं समासज वितहं पाउरेसए ॥१७॥ जो वजं समुप्पजे न तत्थ अवलम्बए। तउ उकसे अप्पाणं फासे तत्थऽहियासए।१८। संस्कृतच्छाया-प्रासीनोऽनीश मरणमिन्द्रियाणि समीरयेत् । कोलावासं सपासाद्य वितथं प्रादुरेषयेत् ॥१७|| यतोऽवद्यं समुत्पद्यत न तत्रावलम्बेत । ततः उत्कर्षेदात्मानम् स्पृष्टस्तत्राध्यासयेत्॥१८।। शब्दार्थ-अणेलिसं=अनुपम । मरणं मरण का। आसीणे आश्रय लेने वाला। इन्दियाणि इन्द्रियों को । समीरए सम्यक् प्रेरणा करे । कोलावासं घुण आदि से युक्त पाटिये आदि को । समासज प्राप्त कर । वितह उससे भिन्न अन्य निर्दोष की । पाउरेसए एषणा करेसेवना करे। जो जिससे । वज्ज-वज्र के समान भारी कर्म अथवा पाप । समुप्पज्जे उत्पन्न.. होता हो। न तत्थ अवलम्बए उसका सहारा न ले । तो उससे । अप्पाणं अपने आपको । उक्कसे ऊपर निकाले । फासे दुखों को । तत्थ अहियासए वहाँ स्थित होकर सहन करे। भावार्थ-ऐसे अनुपम इंगितमरण को स्वीकार करके इन्द्रियों को राग-द्वेष न करने के लिए प्रेरित करे । सहारा लेने के लिए घुण आदि जीवयुक्त पाटिया हो तो उसे छोड़कर दूसरे निर्जीव काष्ठ खण्ड ( पाटिये ) की गवेषणा करे ॥१७॥ जिससे वज्रतुल्य भारी पाप उत्पन्न हो ऐसे जीव-जन्तु वाले पाटिये For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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