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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५६४ ] [ श्रचाराङ्ग-सूत्रम् - सर्गों की अवगणना करके, नश्वर शरीर को छोड़कर, कायरों के द्वारा दुरनुचरणीय सत्य का आचरण करता है । यह पादपोपगमन मरण काल-पर्याय के समान स्वाभाविक है । यह हितकारी है, सुखकारी है, यावत् भवान्तर में भी इसकी पुण्य - परम्परा साथ श्राने वाली है, ऐसा मैं कहता हूँ । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir विवेचन - पूर्व उद्देशक में भक्तपरिज्ञा और इङ्गितमरण का कथन किया गया है । यहाँ उससे उच्च श्रेणी के मरण का निरूपण करते हैं । इङ्गितमरण से उच्च श्रेणी का मरण पादपोपगमन -मरण है । "इसका ही इस सूत्र में कथन किया गया है। जब साधक को यह भलीभाँति ज्ञात हो जाय कि अब मेरा शरीर धर्म- क्रिया में सहायक नहीं हो रहा है तो उसे शरीर के बन्धन से मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए। साधक का देह - पालन धर्म - क्रिया के लिए ही होता है । जब शरीर से यह आशय पूरा न होता दिखाई दे तो उससे अपना सम्बन्ध-विच्छेद करना ही वह हितकर समझता है। साधक को शरीर के प्रति मोह या श्रासक्ति नहीं होती अतः उसे शरीर के क्षीण होने का दुख नहीं होता है। वह तो हँसते २ मृत्यु का स्वागत करने के लिए तय्यार रहता है | इसलिए वह साधक अपना अन्तिम समय आया हुआ जानकर आहार को प्रतिदिन कम करता fit for सर्वथा छोड़ देता है और कषायों को भी कृश कर देता है। ऐसा करने के पश्चात् वह पूर्वोक्त इङ्गितमरण में बताई हुई विधि के अनुसार ग्राम, नगर यावत् राजधानी में तृणों की याचना करता है, जीवरहित योग्य स्थान पर तृण शय्या बिछाता है और योग्य समय जानकर उस पर आरूढ होता है। संस्तारक पर आरूढ होकर वह सिद्धों की साक्षी से पश्च महात्रतों का नवीन श्ररोपण करता है और सब प्रकार के आहार - अशन, पान, खादिम, स्वादिम का प्रत्याख्यान करता है। इसके पश्चात् शरीर का त्याग कर देता है अर्थात् उस पर से ममत्व हटा लेता है, शरीर के अवयवों को फैलाना या संकुचित करने का त्याग करता है और यहाँ तक सूक्ष्म हलन चलन को भी छोड़ देता है। वह वृक्ष की तरह सर्वथा निश्चेष्ट हो जाता है । मन, वचन और काया की सर्वप्रवृत्ति को त्याग कर वह श्रात्मलीन हो जाता है। इस उच्चकोटि की अवस्था में देह का विसर्जन करना पादपोपगमन मरण कहा जाता है। इङ्गितमरण में देह का कुचन और प्रसारण करने का अवकाश है जब कि पादपोपगमन में सूक्ष्म हलन चलन का भी प्रत्याख्यान होता है। इस पादपोपगमन -मरण का यथोक्त विधि से समाधि में लीन हो जाती है। अनुष्ठान करने से आत्मा परिपूर्ण जो व्यक्ति विशिष्ट कोटि पर पहुँचा हुआ होता है वही इसकी सम्यक् आराधना कर सकता है। यह वीरों का अनुष्ठान है, कायरों का नहीं। यह हितकारी, सुखकारी, कर्मों का अन्त करने वाला, मोत सिद्धि करने वाला और दीर्घकाल तक सुख की परम्परा को देने वाला है । भगवान् के वचनों पर हद श्रद्धा रखने वाले व्यक्ति इस समाधि मरण से मरकर अपना साध्य सिद्ध कर लेते हैं । षष्ठ उद्देशक में इस विषय में पर्याप्त प्रकाश डाल दिया गया है । जो व्यक्ति इस प्रकार समाधिमरण में लीन हो जाते हैं। वे देहभान से प्रतीत होकर आत्मा के सत्य-स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं । इति सप्तम उद्देशक : For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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