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प्रथम उद्देशक ]
[२६
विवेचन-जो व्यक्ति आत्मा को नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव आदि भाव दिशाओं में और पूर्व, पश्चिम आदि प्रज्ञापक-दिशाओं में गमनागमन करने वाली, अक्षणिक, अमूर्त आदि लक्षणों से युक्त मानता है वही परमार्थतया आत्मवादी है। जो प्रात्मा के इन लक्षणों को स्वीकार नहीं करता वह श्रात्मा के सम्यक् स्वरूप को नहीं जानने के कारण अनात्मवादी ही है।
जो आत्मा को सर्वव्यापी, नित्य, क्षणिक और अकर्ता मानते हैं उनके मतमें आत्मा का भवान्तर में संक्रमण होना नहीं बन सकता। इसलिए वे आत्मा को मानते हुए भी अनात्मवादी-से हैं। वैशेषिकदर्शन आत्मा को सर्वव्यापी मानता है। उनका यह मानना युक्ति-संगत नहीं है। क्योंकि श्रात्मा का चैतन्य गुण शरीरव्यापी ही है। जिसका गुण जहां देखा जाता है वह वहीं रहता है, अन्यत्र नहीं । जैसे घट के रूपादिगुण जहां पाये जाते हैं वहीं घट होता है, सर्वत्र नहीं। वैसे ही आत्मा का चैतन्य-गुण शरीर में ही पाया जाता है मतः आत्मा को शरीर-व्यापी ही मानना चाहिए; सर्वव्यापी नहीं।
आत्मा को सर्वव्यापी मानने से सब आत्माओं का परस्पर एकीकरण हो जाने से प्रति व्यक्ति को होने वाला सुख-दुख का पृथक् पृथक् अनुभव न हो सकेगा। श्रात्मा को सर्वव्यापी मानने पर एक व्यक्ति को सुख का अनुभव होने से सबको सुख का अनुभव होना चाहिए । एक आत्मा को दुख का अनुभव होने पर सब आत्माओं को दुख का अनुभव होना चाहिए क्योंकि आत्मा सर्वव्यापक है। ऐसा होने पर धर्म, अधर्म, पुण्य, पाप, स्वर्ग-नरक आदि की संगति नहीं बन सकती है । अतः आत्मा को सर्वव्यापी न मानकर देह-प्रमाण ही मानना चाहिए।
आत्मा को आकाश की तरह सर्वव्यापी मानने पर उसका भवान्तर में संक्रमण नहीं हो सकता । तथा उसमें विशिष्ट क्रिया घटित नहीं हो सकती । क्रिया के अभाव में इह-लोक और परलोक की व्यवस्था नहीं हो सकती और शुभाशुभ कर्मों का फलानुभव नहीं हो सकता । अतः जो आत्मा को शरीर-प्रमाण मानता है वही आत्मवादी है, वही लोकवादी है, वही कर्मवादी है और वही क्रियावादी है।
इसी तरह जो आत्मा को कूटस्थ नित्य मानता है उस सांख्य दर्शन में भी भवान्तर-संक्रान्ति, लोक व्यवस्था, कर्म-विभाग और क्रिया की संगति नहीं होती है । "अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावं नित्यम्' जो कभी नष्ट न हो, जो कभी उत्पन्न न हो और जो स्थिर रहे वह नित्य है। इस व्याख्या के अनुसार प्रात्मा की नित्यता मानने पर उसका नवीन शरीर धारण करना और पूर्व शरीर का त्याग करना नहीं बन सकता। इसके बिना जन्म और मरण नहीं घटता। जन्म-मरण के विना इहलोक-परलोक की व्यवस्था नहीं बनती, कर्म की और क्रिया की व्यवस्था नहीं बनती। श्रतः प्रात्मा को कूटस्थ नित्य नहीं मानना चाहिए।
इसी तरह आत्मा को सर्वथा क्षणिक मानने पर भी उक्त व्यवस्थाएँ नहीं बन सकतीं । बौद्ध दर्शन पदार्थमात्र को क्षणिक मानता है। उसके मत से प्रत्येक पदार्थ क्षणमात्र ठहर कर दूसरे सण में निरन्वय नष्ट हो जाता है। आत्मा को यदि क्षणमात्र स्थायीमानकर दूसरे क्षण में निरन्वय नष्ट होने वाली माना जाय तो 'सोऽहं' ( मैं वही हूँ) रूप अनुसन्धानात्मक ज्ञान नहीं हो सकता।
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