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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्ययन द्वितीयोद्देशक ] [ ५१७ असणं वा ४ वत्थं वा ४ जाव श्रावसहं वा समुस्सिणाइ तं च भिक्खू पडिलेहाए श्रागमित्ता आणविजा प्रणासेवणाए त्ति बेमि । संस्कृतच्छाया-स भिक्षुः पराक्रमेत वा यावदन्यत्र वा क्वचिद्विहरन्तं तं भिक्षुमुपसङ्कग्य गृहपतिरात्मगतया प्रेक्षया ऽशन वा ४ वस्त्रं वा ४ यावदाहृत्य ददाति, आवसथञ्च समुच्छृणोति, भिक्षु परिघासायितुं तच्च भिक्षुः जानीयात् स्वसन्मत्या परव्याकरणेन, अन्येभ्यो वा श्रुत्वा, अयं खलु गृहपतिः ममार्थाय अशनं वा ४ वस्त्रं वा यावदावसथं वा समुच्छृणोति, तच्च भिक्षुः प्रत्युपेक्ष्यावगम्य ज्ञापयेदनासेवनथेति ब्रवीमि । शब्दार्थ-से भिक्खू वह . साधु परिक्कमिज वा-श्मशानादि में फिरता हो । जाव=यावत् । हुरत्था अन्यत्र । कहिचि-कहीं। विहरमाणं विचरते हुए। तं भिवखु उस भिक्षु के । उवसंकमित्त-समीप आकर । गाहावई-कोई गृहस्थ । भिक्खू भिक्ष को । परिघासेउं= जिमाने के लिए। अायगयाए पेहाए मन में संकल्प करके । असणं वा ४=अशनादि । वत्थं वा ४ वस्त्रादि । जाव आहट्ट यावत् लाकर । चेएइ देने लगे । श्रावसहं-मकान । समुस्सिणाइ= वनवाने लगे । तं च यह । भिक्खू–साधु । सहसम्मइयाए अपनी बुद्धि द्वारा । परवागरणेणं= तीथङ्करादि द्वारा बताये हुए मार्ग से । अन्नेसि वा सुच्चा अथवा अन्य किसी से सुनकर । जाणिज्जा-जान ले कि । अयं खलु गाहावई यह गृहस्थ । मम अट्ठाए-मेरे लिए । असणं वा= अशनादि । वत्थं वा अथवा वस्त्रादि । जाव-यावत् । श्रावसह मकान । समुस्सिणाइ-तय्यार कराता है। तं च-इसे । भिक्खू साधु । पडिलेहाए=विचार कर । आगमित्ता-जानकर । अणासेवणाए उसे नहीं सेवन करने के लिए । प्राणवेजा गृहस्थ को सूचित कर दे । ति बेमि= ऐसा मैं कहता हूँ। भावार्थ-मुनि साधक श्मशानादि में फिरता हो या अन्य कहीं विचरता हो, उसे देखकर कोई गहस्थ उस भिन्नु को जिमाने का मन में संकल्प करके वह मुनि के लिए प्रारम्भ करके आहारादि देवे अथवा मुनि के लिए मकान बनावे—यह बात मुनि साधक अपने बुद्धिबल से अथवा तीर्थकर प्ररूपित मार्ग से अथवा अन्य किसी से सुनकर यह जान ले कि “यह गृहस्थ मेरे लिए आहारादि बनाकर अथवा मकान तय्यार कर देना चाहता है"। ऐसे प्रसंग पर मुनि को चाहिए कि वह इस बात का विचार कर तथा पूरी जांचकर उस गहस्थ को यह स्पष्ट सूचित कर दे कि "मैं मेरे निमित्त तैयार किये हुए अशनादि या मकान का सेवन नहीं कर सकता हूँ। विवेचन-प्रथम सूत्र में गृहस्थ अशनादिक घर से तय्यार करके मुनि के स्थान पर आकर भिक्षा देने की प्रार्थना करता है । वह भिक्षा मुनि नहीं ग्रहण कर सकता है। क्योंकि अगर भिक्षुक ऐसी भिक्षा ग्रहण करता है तो उसमें शिथिलता का दोष श्राजाता है । शिथिलता जागृति की विरोधिनी है। अतएष For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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