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[आचाराग-सूत्रम्
खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र आदि का प्रलोभन दे और कल्प से बाहर की वस्तुओं के लिए आमंत्रण करे तो साधक का यह कर्त्तव्य है कि वह उसे ग्रहण न करे। वह बड़े मिष्ठ शब्दों में उसे समझा दे कि इस प्रकार का तुम्हारा निमंत्रण में स्वीकार नहीं कर सकता। तुम यह कह रहे हो कि तुमने मेरे लिए ये अशनादि प्राणी, भूत, जीव और सत्वों का समारम्भ करके बनाये हैं, मेरे निमित्त खरीदे हैं, उधार लिये हैं, किसी दूसरे से छीने हैं, दूसरे के पदार्थ उसे बिना पूछे तुम दे रहे हो, मेरे सामने लाकर देने का कह रहे हो. मेरे निमित्त तम मकान बनवाना चाहते हो अथवा मकान का जीर्णोद्धार करना चाहते हो लेकिन तुम्हें यह समझना चाहिए कि इन आरम्भ के कार्यों से दूर रहने के लिए ही तो मैं त्यागी बना हूँ | अगर त्यागी बन जाने पर भी ये चीजें शेष रह जाय तो उस त्याग का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए भाई ! ऐसी कोई खटपट न करो। तुम्हारा यह निमंत्रण स्वीकार करने के लिए मैं समर्थ नहीं हूँ | यह मेरे आचार से विपरीत है। इस प्रकार उसे समझावे और अपने त्याग के नियमों से उसे परिचित कर दे। उस गृहस्थ के प्रलोभन में न फंस जाने के लिए सूत्रकार ने इस सूत्र में साधक को सचेत किया है।
सूत्रकार ने सूत्र में श्मशान में, शन्यागार में, वृक्ष के मूल में, पर्वत की गुफा में आदि आदि एकान्त स्थानों का निर्देश किया है । इसका आशय यह है कि एकान्त स्थान पाप-प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देता है। उपादान की शुद्धि है तो एकान्त स्थान साधना का अच्छा साधन है इसीलिए ऋषिमुनि योगी एकान्त में साधना करते हैं । ऐसा होने पर भी यह देखा गया है कि मनुष्य को एकान्त में अशुभ कर्म करने का अधिक अवसर प्राप्त होता है । एकान्त स्थान में रहे हुए भिन्नु को, कोई गृहस्थ-ऐसे समय में जब कि उसे अशनादि की आवश्यकता हो-भक्तिपूर्वक उक्त प्रकार का आमंत्रण करे तो यह एक बड़ा आकर्षक प्रलोभन गिना जा सकता है । ऐसे प्रलोभन के समय साधक की कसौटी होती है । ऐसे समय में भी साधक अपने त्याग के नियमों का भंग न करें यह बताने के लिए एकान्त स्थानों का निर्देश किया गया प्रतीत होता है।
सूत्र में "सुसाणंसि" पाठ है। टीकाकार यह कहते हैं कि यह पाठ जिनकल्पी अथवा प्रतिमाप्रतिपन्न भिक्षुओं की अपेक्षा से है। स्थविरकल्पियों को श्मशान में रहना कल्पनीय नहीं है । इसका कारण यह है कि श्मशान के पास के अशुद्ध वातावरण का अशुद्ध असर होने की सम्भावना रहती है इसलिए विधिनिषेध में मानने वाले स्थविरकल्पी साधक के लिए श्मशान में निवास करना अकल्पनीय हैं। प्रतिमाघारी त्यागी का तो ऐसा श्राचार है कि जहाँ कहीं सूर्य अस्त हो जाय वहीं वे ठहर जाते हैं; वह चाहे जेसा स्थान क्यों न हो। इसलिए यह श्मशान का पाठ जिनकल्पी और प्रतिमाधारी की अपेक्षा समझना चाहिए।
ऐसे निर्जन स्थानों पर भी यदि प्रलोभन श्रावें तो साधक का कर्तव्य है कि वह प्रलोभनों में न फँसे और अपने त्याग के नियमों का यथाविधि पालन करे। प्रलोभनों पर विजय पाना ही त्याग की कसौटी है।
से भिक्खू परिकमिज वा जाव हुरत्था वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खु उवसंकमित्तु गाहावई श्रायगयाए पेहाए असणं वा ४ वत्थं वा ४ जाव अाह? चेएइ श्रावसहं वा समुस्सिणाइ भिक्खू परिघासेडं, तं च भिक्खू जाणिजा सहसम्मइयाए परवागरणेणं अन्नोस वा सुचा अयं खलु गाहावई मम अट्ठाए
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