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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ख] [आचारा-सूत्रम् के बीच में, ग्राम और प्रान्त के बीच में, अथवा नगर और प्रान्त के बीच में विहार करते हुए कोई-कोई मनुष्य त्रास दें-उपसर्ग करें या अन्य किसी तरह के संकट आ पड़े तो धीर-वीर साधक अक्षुब्ध होकर समभावपूर्वक सहन करे। विवेचन-गौरवत्रय का परित्याग कर ममतारहित और अकिञ्चन रूप से ग्रामानुग्राम विचरण करने वाले मुनि को विविध परिस्थितियों का अनुभव करना पड़ता है। संसार में विभिन्न प्रकृतियों और रुचियों के लोग रहते हैं। भिक्षा आदि के निमित्त से मुनि साधक को उनके सम्पर्क में आना पड़ता है। ऐसी स्थिति में अनेक सम-विषम, अनुकूल-प्रतिकूल प्रसंगों के उपस्थित होने की सदा सम्भावना बनी रहती है। इसलिए ऐसे प्रसंगों में मुनि साधक दृढ़ता धारण करे, वह अपने निर्धारित मार्ग से विचलित न हो जाय, यह इस सूत्र में उपदेश दिया गया है। मुनि साधक कहीं एक स्थान पर तो रहता नहीं है। वह अपनी कल्प-मर्यादा के अनुसार ग्रामों में, नगरों में, प्रान्तों में या इनके अन्तरालों में विचरण करता रहता है इसलिए अप्रतिबन्ध विहारी मुनि को विविध उपसर्ग-परीषहों का अनुभव करना होता है। उपसगों के डर से या स्थानमोह से या अन्य किसी तरह की आसक्ति के कारण एक स्थान पर ही जमा रहना साधना के लिए बाधक है । सूत्रकार का अभिप्राय यह मालूम होता है कि वे साधक के लिए अप्रतिबन्ध विहार को संयम का अनिवार्य अङ्ग सम. झते हैं इसलिए उन्होंने सूत्र में विचरण-स्थानों का अलग २ निर्देश किया है। सच्चे संयमी साधक को ग्राम, नगर, प्रान्त और देश में अप्रतिबन्ध विचरण करना चाहिए और इस प्रकार विचरते हुए जो कष्ट उठाने पडें उन्हें अविचल होकर समभाव से सहन करना चाहिए। उपसर्ग करने वाले प्रायः मनुष्य ही होते हैं अतः सूत्र में 'जण' पद दिया गया है। नैरयिक जीव तो उपसर्ग दे नहीं सकते हैं। देव और तिर्यचकृत उपसर्ग कभी-कभी होते हैं परन्तु मनुष्यकृत उपसर्ग तो साधना के मार्ग में प्रायः पद-पद पर हुआ करते हैं । इसलिए 'जण' पद दिया है । अथवा 'जन' शब्द से देव, मनुष्य और तिर्यञ्च तीनों का ग्रहण कर लेना चाहिए। उपसर्ग देने के कारणों के मूल में रही हुई भावना का विश्लेषण करके अनुभवियों ने दिव्यउपसर्ग के चार कारण बताये हैं । हास्य, प्रद्वेष, विमर्श और पृथक् विमात्रा इन चार हेतुओं से देव सम्बन्धी उपसर्ग होते हैं। कोई यक्ष या व्यन्तरी या और कोई भी देव अपने हास्य-विनोद के कारण दूसरों को कष्ट पहुँचाते हैं। कोई द्वेष से प्रेरित होकर कष्ट देते हैं जैसा कि तापसी का रूप बनाकर व्यन्तरी ने माघ मास की भयङ्कर शीत वाली रात्रि में भगवान् के शरीर पर अपनी जटाओं से झरते हुए पानी का सिञ्चन किया। कोई-कोई देव परीक्षा के लिए भी उपसर्ग देते हैं। वे यह. देखना चाहते हैं कि यह दृढ़धर्मा है या नहीं ? कभी २ हास्य, विद्वेष और विमर्श तीनों के कारण उपसर्ग दिये जाते हैं जैसा कि संगम देव ने भगवान महावीर को उपसर्ग दिये। मनुष्य सम्बन्धी उपसर्ग के चार कारण बताये गये हैं-हास्य, प्रद्वेष, विमर्श और कुशील प्रति सेवना । प्रथम तीन पूर्ववत् हैं । चतुर्थ कारण काअभिप्राय यह है कि कई व्यभिचारी या व्यभिचारिणी नर-नारी कुशील सेवन के लिए भी साधु-साध्वी को या गृहस्थ साधक को उपसर्ग देते हैं। तिर्यश्च योनिक उपसों के भय, प्रद्वेष, आहार और अपत्यसंरक्षणरूप चार कारण बताये गये हैं। किसी भी कारण से देव, मनुष्य और तिर्यश्च सम्बन्धी उपसर्ग होने पर अथवा अन्य किसी तरह के For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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