SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 522
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir धूताख्य षष्ठ अध्ययन -पञ्चम उद्देशकः गत उद्देशक में कर्मों का धुनन करने के लिए तीन प्रकार के गौरव का परित्याग करने का उपदेश दिया गया है। जब तक सत्कार-पुरस्कार आदि की भावना अन्तःकरण में बनी रहती है तब तक गौरवत्रय का सम्पूर्ण परिहार नहीं किया जा सकता है। इसलिए इस उद्देशक में मानापमान का विचार साधक के हृदय में नहीं रहना चाहिए, यह प्रतिपादित किया जाता है। साथ ही कर्म-धुनन की परिपूर्णता उपसर्ग-सहन के बिना नहीं हो सकती अतएव उपसर्ग-सहिष्णुता और सत्कार-विधूनन की शिक्षा देते हुए सूत्रकार यह उद्देशक इस प्रकार प्रारम्भ करते हैं: से गिहेसु वा गिहतरेसु वा, गामेसु वा गामंतरेसु वा, नगरेसु वा नगरंतरेसु वा, जणवएसु वा जणवयंतरेसु वा, गामनयरंतरे वा गामजणवयंतरे वा नगरजणवयंतरे वा, संतेगइया जणा लूसगा भवंति अदुवा फासा फुसंति ते फासे पुढे वीरो अहियासए । संस्कृतच्छाया-स गृहेषुवा गृहान्तरेषु वा, प्रामेषु वा प्रामान्तरेषुषा, नगरेषु वा नगरान्तरेषु था, जनपदेषु वा जनपदान्तरेषु वा, ग्रामनगरान्तरे वा, ग्रामजनपदान्तरे वा, नगरजनपदान्तरे था सन्त्येके जनाः लूषकाः भवन्ति अथवा स्पर्शाः स्पृशन्ति, तान् स्पर्शान् स्पृष्टो वीरोऽध्यासयेत् । शब्दार्थ-से-वह मुनि । गिहेसु वा घरों में या। गिहतरेसु वा घरों के आसपास । गामेसु वा गामंतरेसु वा-गांवों में या ग्रामों के आसपास । नगरेसु वा नयरंतरेसु वा नगरों में या नगरों के आसपास । जणवएसु वा जणवयंतरेसु वा आन्तों में या प्रान्तों के आसपास । गामनपरन्तरे वा-ग्राम और नगर के बीच में। गामजणवयंतरे वा ग्राम और प्रान्त के बीच में । नगरजणवयंतरे वा नगर और प्रान्त के बीच में। एगइया जणा लूसगा भवन्ति एक-एक मनुष्य जो त्रास देने वाले होते हैं । संति चे विद्यमान रहते हैं। अदुवा अथवा । फासा फुसन्ति= दुख भा पड़ते हैं । पुट्ठो उनसे स्पृष्ट होने पर । वीरो चीर-धीर । ते फासे अहियासए उन दुखों को सहन करे। भावार्थ-मुनि साधक को भिक्षा के लिए जाते हुए घरों में या घरों के आसपास, ग्रामों में या ग्रामों के आसपास, नगरों में या नगरों के आसपास, प्रान्तों में या प्रान्तों के आसपास, ग्राम और नगर For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy