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________________ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पत्रम अभ्ययन षष्ठ उद्देशक ] [४२७ शब्दार्थ-मेहावी-बुद्धिमान् साधक । सव्वो सभी प्रकार से द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव से । सव्वप्पणा सामान्य विशेष रूप से सभी रूप में। सुपडिलेहिया विचार करके । सम्म सम्यग-यथार्थ । समभिएणाय-जानकर। निद्देसं-सर्वज्ञ की आज्ञा का। नाइवठूजा-उल्लंघन न करे । आराम संयम को। परिणाय स्वीकार करके । अलीणेगुत्तेजितेन्द्रिय होकर । परिव्वए संयम में प्रवृत्ति करे। निद्रियट्टी-मोक्षार्थी । वीरे धीर । सया-हमेशा । आगमेण= शास्त्रों का अवलम्बन लेकर । पराक्कमेजासि-पराक्रम करे । ति बेमि-ऐसा मैं कहता हूँ। ____ भावार्थ-बुद्धिमान् साधक, यह सब सभी क्षेत्र से, सभी तरह से, विवेक-पूर्वक जांचकर उसमें से सत्य को ग्रहण करके सर्वज्ञ देवों की आज्ञा का उल्लंघन न करे । संयम को सच्चा श्राराम मानकर जितेन्द्रिय होकर प्रगति करे । मोक्षार्थी वीर साधक सर्वज्ञ-प्रणीत आचार-विचार व शास्त्रों का अवलम्बन लेकर संयम में सतत पुरुषार्थ करे ऐसा मैं कहता हूँ । विवेचन-पहिले जो प्रवादियों के प्रवाह की समीक्षा की गई है उसको सम्यग रूप से समझ कर तथा को अङ्गीकार करने की प्रेरणा इस सूत्र में की गई है। सूत्रकार यह नहीं कहते हैं कि "मैं जैसा कहता हूँ उसको तुम विना विचारे मान लो"। वे स्पष्ठ फरमाते हैं कि समस्त वादों को अपने सामने रक्खो, उन पर विचार करो, उनकी परस्पर तुलना करो, परीक्षा करो और तुम्हारी बुद्धि को जो न्याययुक्त जंचे उसको स्वीकार करो। बिना समझे हुए, किसी के आग्रह या दबाब से जो चीज़ स्वीकार की जाती है वह पच नहीं सकती-अधिक काल तक टिक नहीं सकती। जहाँ तक साधक वस्तु का स्वरूप, क्षेत्र, काल और भाव समझने की योग्यता जागृत नहीं करता वहाँ तक वह किसी चीज़ को स्वीकार भी करे तो भी उसका परिणाम जैसा आना चाहिए वैसा संतोषप्रद नहीं आता। अतएव सूत्रकार यह कहते हैं कि अन्य प्रवाद और जैन प्रवाद को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से सामान्य और विशेष रूप से समझो और समझने के बाद जो सत्य प्रतीत हो उसको स्वीकार करो। यह जैनदर्शन की उदारता है। यहाँ यह भी बताया गया है कि जो बुद्धिमान और निस्पृह होते हैं वे "तेरा और मेरा" का भेद नहीं रखते हैं। उन्हें सत्य का आग्रह होता है । जो सच्चा है वह उनका है न कि जो उनका है वह सच्चा है। तत्त्वदर्शी साधक सभी बातों का विचार करके सर्वज्ञ की आज्ञा का उल्लंघन न करे। इस सूत्र में सूत्रकार ने यह कहा है कि आराम–संयम ही सच्चा श्राराम है (सुख है ), भोगों में आराम नहीं है । भोग में आराम है-मजा है-आनन्द है यह बात अनुभव से असत्य है और भोग के संयम में आराम है वह अनुभव सत्य है। बहुत बार जो पदार्थों की प्राप्ति में सुख का भास होता है उसका कारण वह पदार्थ या उस पदार्थ का भोग नहीं है लेकिन उसके लिए जो प्रयत्न किया गया है और उसकी प्राप्ति की जो उमङ्ग थी उसका सुख प्रतीत होता है । पदार्थ-प्राप्ति की तरङ्ग में जो सुख देखा जाता है वह उसकी प्राप्ति होने के पश्चात् नहीं दिखाई देता। पदार्थ का भोग आनन्द नहीं देता बल्कि आनन्द को एक क्षण में लूट लेता है। यह बात बहुत मननीय है। संयम ही सच्चा सुख का स्थान है यह अनुभव तभी होगा जब जगत की "लकीर के फकीर" की बात को छोड़कर स्वतंत्र बुद्धि से अवलोकन करना आएगा। दूसरी बात सूत्रकार यहाँ यह कहते हैं कि अनुभवी पुरुष-सर्वज्ञ या तीर्थकर जब साक्षात् विद्यमान न हों तब उनके वाक्यों को उसी तरह स्वीकार करना चाहिए। शास्त्र सर्वज्ञ देव के प्रतिनिधि है ।। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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