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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पञ्चम अध्ययन पंष्ठ उद्देशक ] [२५ उसके वचनों की परीक्षा करनी चाहिए। जो वचन युक्तियुक्त प्रतीत हों उनका ग्रहण करना चाहिए। यह ध्यान में लेकर जिन-प्रवाद और अन्य प्रवाद की परीक्षा करनी चाहिए। जब दो वस्तुएँ होती हैं तो दोनों की परीक्षा करने से ही उनकी अच्छाई और बुराई का पता लग सकता है। अतएव प्रवादों की परीक्षा करनी चाहिए । जो प्रवाद युक्तियुक्त लगे उसको अङ्गीकार करना चाहिए । कहा भी है: पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ अर्थात्-मेरा न तो वीर जिनेश्वर में अनुराग है और न कपिल श्रादि अन्य तीर्थयों पर द्वेष है। मगर जिनके युक्तिसंगत वचन हैं उनका ग्रहण करना ही चाहिए। प्रवादों की परीक्षा करते हुए यह सत्य सामने आता है कि पदार्थ अनेक-धर्मात्मक हैं। उनमें नित्यधर्म, अनित्यधर्म, मूर्तधर्म, अमृतधर्म, जड़धर्म, चेतनधर्म आदि २ अनेक धर्म पाये जाते हैं। वस्तु के समस्त धर्मों को जानने से ही उसका जानना कहा जा सकता है। वस्तु के एक अंश को जानने से वह वस्तु पूर्ण नहीं जानी जा सकती है। अतएव वस्तु को अनेक दृष्टिबिन्दुओं से जानने के लिए प्रयत्न करना है । जो वस्तु को एक ही दृष्टिबिन्दु से जानता है और उसे उसी रूप में कह कर उसके अन्य धर्मों का तिरस्कार कर देता है वह वस्तु के सच्चे स्वरूप के साथ अन्याय करता है। वह वस्तु के वास्तविक समग्र रूप को न जानकर केवल उसके अंश को ही वस्तु मान लेता है । यह ठीक नहीं हो सकता । यही बात अन्य वादों के विषय में भी है । बौद्ध दर्शन वाले वस्तु को एकान्त विनश्वर, क्षणविध्वंसी मानते हैं। वे केवल वस्तु की वर्तमान पर्याय को ही ग्रहण करते हैं उसकी भूत और भविष्य की पर्याय की अवहेलना करते हैं । अगर बौद्ध दर्शन के क्षणवाद को ही मान लिया जाये तो संसार का सारा व्यवहार ही उठ जाता है, कार्य और कारण की परम्परा ही नहीं बन सकती है । कार्य और कारण एक ही क्षण में नहीं हो सकते हैं । जिस क्षण में कारण होता है उसके इतर क्षण में कार्य होता है । पदार्थ एक ही क्षण में नष्ट हो जाता है तो कार्यकारण माव कैसे बन सकता है । इसी तरह पुण्य, पाप, धर्म, अधर्म भी निष्फल हो जति है क्योंकि जो धर्म करता है वह आत्मा तो नष्ट हो जाता है और दूसरा उत्पन्न होता है वह उसका फल प्राप्त करता है तो कृत-प्रणाश और अकृत-कर्म-भोग दोष का प्रसंग आता है । जिसने धर्म किया उसको तो फल न मिल सका और वह नष्ट हो गया और जिसने नहीं किया उसे उसका फल मिला यह कृत-प्रणाश और अकृत-कर्मभोग है । साधारण-सी बात है कि उत्पन्न होते ही जो घड़ा सर्वथा नष्ट हो जाता है उसमें जल नहीं ठहर सकती है । घट में जलधारण की क्रिया देखी जाती है इसलिए यह मानना चाहिए कि घट सर्वथा क्षणविध्वंसी नहीं किन्तु कियत्कालस्थायी है। इस तरह एकान्त क्षणिकवाद युक्तिसंगत नहीं है। अगर क्षणवाद के साथ द्रव्य रूप से पदार्थ का स्थायित्व माना जाय तो कोई दोष नहीं है। इसी तरह एकान्त नित्यवाद भी दूषित है। सांख्यदर्शन कूटस्थ नित्य पक्ष को मानता है। एकान्त नित्यपक्ष भी युक्तिसंगत नहीं है। अगर पदार्थों को नित्य ही माने जाय तो जो उनमें परिवर्तन देखा जाता है वह नहीं बन सकता। पदार्थों में परिवर्तन होता है यह बात प्रत्यक्ष है । जो पदार्थ नित्य है उसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति नहीं हो सकती। पदार्थों में निवृत्ति और प्रवृत्ति देखी जाती है। आत्मा को यदि सर्वथा नित्य ही माता जायगा तो वह सदा एकरूप ही रहेगा। जो सुखी है वह पापकर्म करते हुए भी सुखी ही बना रहेगा, जो दुखी है वह धर्माचरण करने पर भी दुखी ही बना रहेगा । तो प्राणी मुक्त होने के लिए जो पुरुषार्थ करते हैं वह सब निष्फल होगा। सभी For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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