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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पञ्चम अध्ययन षष्ठ उद्देशक ] [४२३ हाल न हो, यह वीर प्रभु का दर्शन ( अभिप्राय ) है । इसलिए जो पुरुष सदा गुरु की दृष्टि से देखने वाला हो, गुरु द्वारा उपदिष्ट मुक्ति को स्वीकार करने वाला हो, गुरु का बहुमान करने वाला हो, गुरु पर पूर्ण श्रद्धा करने वाला हो, गुरुकुल में निवास करता हो वह पुरुष कर्मों को जीतकर तत्त्वदृष्टा बनता है। ऐसा तत्त्वदर्शी महापुरुष जिसका मन सर्वज्ञोपदेश से बाहर नहीं जाता है वह कभी किसी से पराभूत नहीं होता है और वह निरावलम्बी रहने में समर्थ होता है । विवेचन-इस सूत्र में आज्ञा की आराधना का फल बताते हुए गुरुदेव की आज्ञा में रहने की प्रेरणा की गई है । अखंड श्रद्धा के साथ अखंड पुरुषार्थी भी होना चाहिए। कितनेक साधक ऐसे होते हैं कि जो पुरुषार्थ तो करते हैं लेकिन उनका पुरुषार्थ सम्यक् मार्ग का नहीं होता। अपने मनोवेग को वे अपनी स्वच्छन्द वृत्ति के अनुसार कुमार्ग में प्रवृत्त करते हैं । वे स्वेच्छाचार से विपरीत मार्ग पर चलने में उद्यम करते हैं । वे सद्-असत् के ज्ञान से विकल होते हैं तदपि अभिमान से ग्रस्त होकर अपने आपको सर्व ज्ञाता मानते हैं और सावद्य-निरवद्य का विचार किए बिना इच्छा के अनुसार प्रवृत्ति करते हैं। कितनेक साधक ऐसे होते हैं जो स्वच्छन्दाचारी और कुमार्गगामी नहीं होते लेकिन जिनेन्द्र देव की आज्ञा के पालन में श्रालसी, प्रमादी व निरुद्यमी होते हैं। दोनों प्रकार के साधक श्राराधक नहीं हो सकते। प्रथम प्रकार के साधक में पुरुषार्थ है लेकिन वहाँ पुरुषार्थ का दुरुपयोग है। दूसरे प्रकार के साधक में पुरुषार्थ की शक्ति है तदपि वह सद्-अनुष्ठान में सीदाता है अतएव अशक्त बनता है। वह अपनी शक्ति का गोपन करता है । ये दोनों अवस्थाएँ हानिकारक हैं। कुमार्ग में उद्यम और सन्मार्ग में प्रमाद करना, दोनों ही दुर्गति के कारण हैं । गुरुदेव शिष्य को सावधान करते हैं कि हे शिष्य ! ये दोनों प्रकार की अवस्थाएँ तेरी न हो । तू इन दोनों अवस्थाओं से बचकर रहना । कुमार्ग में उद्यम और सन्मार्ग में निरुद्यम करके अपना अहित न करना । “यह मेरा कथन नहीं है लेकिन वीर जिनेश्वर ने यह कहा है" यह कहकर श्री सुधर्मास्वामी इस कथन को अधिक प्रबल रूप प्रदान करते हैं । इस कथन की गुरुता को बढ़ाते हैं। अब सूत्रकार आज्ञा के आराधन का फल बताते हैं। जो साधक गुरु की दृष्टि से देखता है अर्थात्-गुरु ने पदार्थों का जैसा स्वरूप बताया है उसी रूप से पदार्थों को देखता है, गुरु के द्वारा कही हुई निरासक्ति का पालन करता है, गुरु को सर्वत्र प्रधानता देता है, गुरु पर सम्पूर्ण श्रद्धा रखता है, गुरुकुल में ही रहता है इस प्रकार जो गुरु की आराधना करता है वह परीषह-उपसर्गों पर अथवा ज्ञानावरणीयादि कमों पर विजय प्राप्त करके तत्त्वदर्शी-आत्मदृष्टा बनता है । यहाँ गुरु के पास में रहने मात्र से गुरु का आराधक होना नहीं कहा है किन्तु गुरु के आदेश और उपदेश का तथारूप पालन करने को गुरु की आराधना करना कहा है यह लक्ष्य में रखना चाहिए। गुरु की श्राराधना से आत्मदर्शन पाया हुआ महापुरुष सर्वत्र श्लाघनीय होता है और आत्म-सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। इससे आगे चलकर सूत्रकार यह बताते हैं कि जिस महापुरुष ने अपने मन पर पूर्ण विजय प्राप्त कर ली है, जिसका मन वीतराग की आज्ञा से अंशमात्र भी बाहर प्रवृत्ति नहीं करता है वह पुरुष कहीं किसी से पराभव नहीं पा सकता । वह कैसे भी सुन्दर या असुन्दर निमित्तों से विचलित नहीं हो सकता। ऐसा साधक निरालम्बन होने में समर्थ होता है । अर्थात-ऐसे मनोविजेता को फिर किसी के अवलम्बन की For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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