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लोकसार नाम पञ्चम अध्ययन -षष्ठ उद्देशकः
पञ्चम उद्देशक में आचार्य को हृद की उपमा देकर उनके गुणों का वर्णन किया गया है। ऐसे सद्गुण सम्पन्न आचार्य का आश्रय लेकर साधकों को अपनी साधना को सफल करना चाहिए । जो ऐसे आचार्य के सम्पर्क में रहता है, उनकी सम्यग् आराधना करता है वह साधक कुमार्ग से बचता है और " राग तथा द्वेष को क्षीण करता हुआ अपना उद्देश्य सफल करता है । अतएव इस उद्देशक में आज्ञा की आराधना का फल दिखाया जाता है। आज्ञानुवर्ती होने का उपदेश देते हुए सूत्रकार कहते हैं:
surere एगे सोवट्ठाणा आणाए एगे निवट्ठाणा, एयं ते मा होउ, एयं कुसलस्स दंसणं, तद्दिट्ठीए, तम्मुत्तीए, तप्पुरकारे, तस्सन्नी, तन्निवेसणे, अभिभूय दक्खू प्रणाभिभूए पभू निरालंबण्याए जे महं हिम ।
संस्कृतच्छाया— अनाज्ञायामेके सोपस्थानाः, प्राज्ञायामेके निरुपस्थानाः, एतत् ते मा भवतु, एतत् कुशलस्य दर्शनम्, तदृष्टिः तन्मुक्तिः, तत्पुरस्कारः तत्संज्ञी, तन्निवेशन: अभिभूयाद्राक्षीत्, अनभिभूतः प्रभुः निरालम्बनतायाः, यो महान् अबहिर्मनाः ।
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शब्दार्थ - एगे-कितनेक साधक । श्रखाणा - आज्ञा से विपरीत | सोबट्ठाणा - उद्यम करने वाले होते हैं । एगे= कितनेक साधक । श्रणाए - आज्ञा में । निरुवद्वाणा = निरुद्यमी होते हैं। एयं = यह हाल | ते= तेरा | मा होउन हो । एयं =यह । कुसलस्स = जिनेश्वर का । दंसणं अभि प्राय है। तद्दिट्ठीए = गुरु की दृष्टि से देखने वाला । तम्मुत्तीए = गुरु के द्वारा उपदिष्ट निर्लोभ वृत्ति से चलने वाला | तप्पुरकारे= गुरु को सर्वत्र प्रधानता देने वाला । तस्सन्नी = गुरु में पूर्ण श्रद्धा • रखने वाला । तन्निवेसणे = गुरुकुल में रहने वाला साधक । श्रभिभूय = परीषह उपसर्गों को व कर्मों को जीतकर । श्रदक्खू = तत्त्व का दृष्टा बनता है । जे मह = जो महान् पुरुष । अब हिमणे - सर्वज्ञो - पदेश से जरा भी बाहर नहीं जाता है वह । श्रभिभूए- किसी से पराभव नहीं पाता है और । निरालंबणयाए = निरालम्बन भावना भाने में । पशु = समर्थ होता है ।
भावार्थ-कितनेक साधक पुरुषार्थी होते हैं लेकिन वे आज्ञा के श्राराधक नहीं होते; कितने क आज्ञा के अनुकूल प्रवृत्ति करने में निरुद्यमी होते हैं । हे मुने ! ये दोनों ही बाते अयोग्य हैं; तेरा यह
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