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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४१८] [श्राचाराग-सूत्रम् यहाँ सूत्रकार फरमाते हैं कि "अहो साधक, जिसे तू हन्तव्य समझता है वह तू स्वयं है।" इसका यह अर्थ फलित होता है कि जो दूसरे जीवों की हिंसा करता है उसे समझना चाहिए कि वह दूसरों की हिंसा नहीं करता किन्तु अपनी हिंसा कर रहा है । जहाँ वृत्ति में हिंसा की भावना जगी वहाँ समझना चाहिए कि आत्मा की हिंसा हुई । प्रत्येक प्राणी का विश्व के प्राणियों के साथ गाढ सम्बन्ध रहा हुआ है। किसी भी प्राणी को यह हक नहीं हो सकता कि वह अन्य किसी को पीड़ा पहुँचाने का विचार भी कर सके । जो हिंसा करने का विचार करता है वह भले ही हिंसा कर सके या न कर सके किन्तु वह अपनी खुद की हिंसा तो कर ही डालता है। अथवा इस सूत्र का अर्थ यह करना चाहिए कि हे आत्मन् ! जब तू किसी को मारने का विचार करता हो तब यह विचार कर कि यह तू स्वयं है। अर्थात् अपनी आत्मा के समान उसे देख । जैसे तू स्वयं सुख का अभिलाषी है, जीवन का इच्छुक है, दुख का द्वेषी है और मरने से डरता है उसी तरह यह प्राणी भी सुखाभिलाषी है, दुख का द्वेषी है, जीवन का इच्छुक है और मरने से भय खाता है । यह मेरे समान ही जिन्दा रहना चाहता है यह समझ कर किसी जीव की हिंसा न कर । इस सूत्र का यह भी अर्थ किया जा सकता है कि हे आत्मन् ! जिसे तू हन्तव्य मानता है वह तू है। आत्मा अनादिकाल से विकल्पों के जाल में फंसकर अनात्म में आत्मा का भान कर रहा है । बाह्य वस्तुओं में आत्म-बुद्धि कर रहा है इसलिए तू का अर्थ बहिरात्मभाव । यह बहिरात्मभाव रूप “तू" ही इन्तव्य है। इस बहिरात्मभाव का विनाश कर । अन्य कोई हन्तव्य नहीं है तेरा भ्रान्त “तू पन" या अहंपन ही हन्तव्य है । इसका जब विनाश होगा तब ही सचा व्यक्तित्व-श्रात्मभान प्रकट होगा। जो बात हन्तव्य के लिए कही गई है वही हुकूमत करने, संताप देने, पकड़ने और प्राणरहित करने के सम्बन्ध में मी समझनी चाहिए; अर्थात् जिसे तू हनने योग्य, आज्ञा करने योग्य, संताप देने योग्य, अपने वश में रखने योग्य और मार डालने योग्य समझता है वह तू स्वयं है। अन्य कोई नहीं। जो सच्चे साधु-सत्पुरुष होते हैं वेही इस तत्त्व को समझ कर अहिंसक जीवन जीते हैं। वे प्रत्येक प्राणीमात्र के साथ मैत्रीभाव धारण करते हैं। यह समझ कर श्रात्मौपम्य को लक्ष्य में रखकर किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चहिए, नहीं करानी चाहिए और न अनुमोदन देना चाहिए । जो प्राणी किसी की हिंसा करते हैं उन्हें समझ लेना चाहिए कि उस हिंसा का कटु फल उस हिंसक को उसी तरह भोगना पड़ेगा। क्रिया अपने कर्ता को अवश्य फल देती है। यह निश्चित समझ कर किसी भी प्राणी की हिंसा करने का अभिप्राय तक न रखना चाहिए । हिंसा करना अपनी हिंसा करना है। . . कई व्यक्ति यह शंका करते हैं कि आत्मा तो नित्य है, अच्छेद्य है, अभेद्य है, अचल है, सनातन है। इसे शस्त्र नहीं छेद सकते, अग्नि नहीं जला सकती, पानी नहीं गला सकता, हवा नहीं सुखा सकती, यह शाश्वत है और अविनाशी है तो उसकी हिंसा-प्राणातिपात कैसे हो सकती है ? जिस तरह अमूर्त आकाश का छेदन-भेदन नहीं हो सकता उसी तरह आत्मा का छेदन-भेदन भी शक्य नहीं है फिर हिंसा में पाप बताकर उसका निषेध क्यों किया जाता है ? इसका समाधान यह है कि यहाँ हिंसा का अर्थ श्रात्मा का व्यापादन नहीं है लेकिन शरीर का व्यापादन है। आत्मा का आधारभूत शरीर है। शरीर में आत्मा चिरकाल से रहता आया है अतएव यह शरीर इसे बहुत प्रिय लगता है । इसका उससे वियोजीकरण करना हिंसा है। द्रव्य प्राणों का हनन करना या पीड़ा पहुँचाना हिंसा है। हिंसा की व्याख्या भी यही है For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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