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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पञ्चम अभ्ययन पश्चमोद्देशक ] [ ४१७ तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वं ति मनसि, तुमंसि नाम सन्चेव जं अजावेयव् ति मनसि, तुमंसि नाम सच्चेव जंपरियावेयव्वं ति मन्नसि, एवं जं परिचित्तव्यं ति मन्नसि, जं उद्दवेयव्वं ति मन्नसि, अंजू चेय पडिबुद्धजीवी तम्हा न हंता न वि घायए, अणुसंवेयणमप्पाणेणं जं हंतव्वं नाभिपत्थए । संस्कृतच्छाया-त्वमेव नाम स एव यं हन्तव्यमिति मन्यसे, त्वमेव नाम स एव यमाज्ञापयितव्यमिति मन्यसे, त्वमेव नाम स एव यं परितापयितव्यमिति मन्यसे एवं यं परिग्रहीतव्यमिति मन्यसे, यम् अपद्रावायतव्यामिति मन्यसे, ऋजुश्चैतस्य प्रतिबुद्धजीवी, तस्मान हन्ता न पि घातकः, अनुसंवेदनमात्मना यत् हन्तव्यं नाभिप्रार्थयेत् । शब्दार्थ-जंजिसे ।हंतव्वं ति='हन्तव्य है। ऐसा । मनसि-तू मानता है । सच्चेव= वह । तुमंसि नाम तू ही है। जं अजावयव्वं मन्नसि-जिसे तू आज्ञा करने योग्य समझता है । तुमंसि नाम सच्चेव वह तू ही है। जं परियायव्वं मन्नसि-जिसे तू परिताप पहुँचाना चाहता है। तुमंसि नाम सच्चेव वह तू ही है। जं परिचित्तव्यं मनसि जिसे तू अपने वश में रखना चाहता है वह तू ही है । जं उद्दवेयव्वं ति मनसि-जिसे तू प्राण रहित करना चाहता है वह तू ही है । अंजू चेव-सरल स्वभावी साधु ही। पडिबुद्धजीवी यह समझ कर जीवन बिताते हैं। तम्हा-इसलिए । न हता-वह किसी को नहीं मारते हैं। न विधायए किसी का घात नहीं करते हैं । अणुसंवेयणमप्पाणेणं-जो हिंसा करते हैं उसका फल वैसा ही पीछा भोगना पड़ता है। - इसलिए । हंतव्वं नाभिपत्थए=किसी की भी हिंसा का इरादा न रक्खे । । __ भावार्थ-अहो आत्मन् ! जिसे तु मारने का विचार कर रहा है वह तो तू स्वयं है, जिस पर तू हुकूमत चलाने का विचार करता है वह भी तू स्वयं ही है, जिसे तू दुखी करना चाहता है वह तू स्वयं है, जिसे तू पकड़ना चाहता है वह तू स्वयं है, जिसे तू मार डालना चाहता है वह भी तू स्वयं ही है, यह विचार कर । सचमुच इस समझ से ही सत्पुरुष सभी जीवों के साथ मैत्रीभाव कर सकते हैं । यह समझ कर किसी भी जीव को नहीं मारना चाहिए क्योंकि दूसरों को मारने का या पीड़ा पहुँचाने का परिणाम उसके कर्ता को उसी तरह भोगना पड़ता है यह जानकर किसी भी प्राणी को मारने या पीड़ा पहुँचाने का इरादा तक नहीं करना चाहिए। विवेचन-इसके पहिले के सूत्र में बालभाव में न फंसने की चेतावनी दी गई है। जो बालक जैसे विवेक से विकल हैं वे ही प्राणी हिंसादि में प्रवृत्त होते हैं । सच्चा श्रद्धालु एवं जागृत आत्मा कभी भी अन्य प्राणी की हिंसा नहीं कर सकता क्योंकि वह जानता है कि आत्म-हनन के बिना हिंसा नहीं हो सकती। जो हिंसा करता है या जो हिंसा करने की भावना करता है वह अपनी आत्मा की हिंसा करता है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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