SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 441
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४१० ] [ आचाराङ्ग-सूत्रम् व्यापार में सफल नहीं हो सकता । विद्यार्थी अगर यही सोचता रहे कि मुझे ज्ञान घढेगा या नहीं तो वह कभी विद्वान् नहीं हो सकता । अपने आप में श्रद्धा रखते हुए जो पुरुषार्थ करता है वही सफलता प्राप्त करता है | श्रद्धा प्रत्येक कार्य का प्राण है। नीरस से नीरस विषय में भी श्रद्धा रस का संचार कर देती है। अतएव प्रत्येक साधक को अपनी साधना पर पूरा विश्वास रखते हुए आगे बढ़ना चाहिए। संशय के भूले पर भूल कर डाँवाडोल न होना चाहिए। संशय का अन्तिम परिणाम नाश के सिवाय अन्य नहीं हो सकता । विचिकित्सा के द्वारा कलुषित अन्तःकरण वाला साधक ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप समाधि नहीं प्राप्त कर सकता । गृहस्थ साधक और संयमी साधक दोनों के लिए यह संशय समानरूप से त्याज्य है । गृहस्थ साधक भी महापुरुषों के वचनों को समझ सकता है और यथाशक्ति उसका अनुसरण कर सकता है । संयमी साधक भी महापुरुषों के वचनों को समझ कर आचरण कर सकता है यह कहकर सूत्रकार ने अगरधर्म और नगारधर्म का सूचन किया है। कई बार ऐसा बनता है कि गृहस्थ साधक महापुरुषों के वचन और तत्त्वों को समझ सकता है और रात-दिन महापुरुषों के संग में रहने वाला साधु कर्मोदय के. कारण तत्त्व को नहीं समझ सकता है। अन्य सहयोगी साधुओं और गृहस्थों को तत्त्व समझते हुए देखकर और स्वयं को तत्त्व नहीं समझ में आने के कारण कोई साधु खेद को प्राप्त किए बिना नहीं रह सकता । उसे दुख होना स्वाभाविक है । वह सोचने लगता है कि "में भव्य भी हूँ या नहीं ? मुझ में संयम है या नहीं ? क्योंकि आचार्य इतना स्पष्ट फरमाते कि अन्य सहयोगी साधु और गृहस्थ भी समझ लेते हैं। लेकिन मैं नहीं समझ सकता हूँ" । इस प्रकार जब कोई साधक ग्लानि का अनुभव करता हो उस समय आचार्य अथवा अन्य सहयोगी उसके निराशामय जीवन में उत्साह और आशा का संचार करने के लिए कहते हैं कि हे साधो ! खेद न करो। तुम भव्य हो, तुम्हें भव्य अभव्य की भावना उत्पन्न हुई है यही तुम्हारी भव्यता का प्रमाण है । जो अभव्य आत्मा होता है उसे इस प्रकार की भावना ही नहीं हो सकती । तुमने चारित्र मार्ग अङ्गीकार किया है यह सम्यक्त्व के विना नहीं हो सकता । बारह प्रकार के कषाय का उपशम, क्षयोपशम या क्षय होने पर चारित्र की प्राप्ति होती है वह चारित्र तुमने पाया है। समझाने पर भी जो पदार्थ का स्वरूप तुम्हारी समझ में नहीं आता इसका कारण ज्ञानावरणीय कर्म का गाढ़ आवरण है. अतएव तुम्हें श्रद्धान रूप सम्यक्त्व का अवलम्बन लेना चाहिए । यह दृढ़ विश्वास रक्खो कि: तमेव सच्च नसिंकं जं जिणेहिं पवेइयं । जो जिनेश्वर देवों ने प्रवेदित किया है वह निस्संदेह सच्चा ही है। वह त्रिकाल में अन्यथा नहीं हो सकता। यह दृढ़ विश्वास रक्खो और विचिकित्सा को दूर करो। श्रवश्यमेव तुम्हारे कर्म दूर होंगे और तुम्हें निर्मल ज्ञान की प्राप्ति होगी । अनन्त ज्ञानियों ने अपने ज्ञान में जैसा देखा है वैसा ही प्ररूपित किया है। उन्होंने अतीन्द्रिय सूक्ष्म तथा व्यवहित पदार्थों का भी स्वरूप बताया है। यह हो सकता है कि महा ज्ञानियों का वह कथन Sarf को बराबर समझ में नहीं आ सके तदपि यह विश्वास रखना चाहिए कि वे वचन तथ्य ही हैं। हमारी बुद्धि में नहीं आते इसीसे वे शंका योग्य नहीं है। जिनेश्वर जो कहते हैं सत्य ही है, निश्शंक है यह दृढ़ विश्वास रखना चाहिए। यह श्रद्धा कल्याण- साधिका है । यहाँ यह आशंका की जाती है कि क्या साधु को भी विचिकित्सा हो सकती है जिसका यहाँ: निषेध किया जाता है ? इसका समाधान यह है कि जो संसारवर्त्ती हैं, जिन्हें मोह का उदय हो सकता है, For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy