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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३८८ ] [आचाराग-सूत्रम् सकता है। ऐसे अपरिपक्व व्यक्तियों के लिए लोकदृष्टि श्रावश्यक है । जो व्यक्ति ऐसी स्थिति पर पहुँच गया है कि जो विवेक कर सकता है, अन्तःकरण की आवाज को समझ सकता है वही लोकदृष्टि की उपेक्षा कर सकता है। कच्चे व्यक्तियों के लिए लोकदृष्टि का विचार करना आवश्यक है। इसके विपरीत जो साधक धैर्यवान् , अनासक्त, कपटरहित, प्रपञ्चमुक्त और अप्रमत्त होते हैं वे ही इस सत्यदर्शीत्व और मुनित्व का सम्यक पालन कर सकते हैं । जो साधक मुनिधर्म को अङ्गीकार करके कर्मरूप शरीर का धुनन करते हैं अथवा जो औदारिक शरीर का निग्रह करते हैं और शरीर का निग्रह करने के लिए श्राहार में पूरा संयम रखते हैं-लूखा सूखा भोजन करते हैं वे वीर समदर्शी पुरुष कर्म का विदारण करते हैं और संसार रूपी सागर को तैर जाते हैं। यहाँ सूत्रकार यह कहना चाहते हैं कि मुनिधर्म के पालन के लिए आहारादि पर पूरा संयम करना चाहिए। वैसे ही शरीर और इन्द्रियाँ अनादि वासना से वासित होने से विषयों की ओर दौड़ती हैं इस पर उन्हें यदि रस युक्त पोषक पदार्थों से पुष्ट बनाई जाय तो उनके आवेश का फिर क्या कहना ? इन्द्रियों के आवेश के शमन के लिए आहार पर-स्वाद पर पूरा निग्रह रखना चाहिए । जो साधक स्वादेन्द्रिय को नहीं जीत सकते हैं वे साधना में निष्फल होते हैं । अतएव शरीरनिग्रह के लिए जो वीर साधक विगयरहित हलका सात्विक आहार करते हैं वे संयम की भलीभांति रक्षा कर सकते हैं अतएव वे संसार से पार हो जाते हैं। देह पर मोह और ममत्व जिप्तने अंश में दूर हो उतने ही अंश में साधुता समझनी चाहिए। मोह और ममता दूर हो तो पाप-प्रवृत्ति से दूर रहा जा सकता है । जो पाप-प्रवृत्ति से दूर रहते हैं उन्हें महापुरुषों ने तीर्ण और मुक्त कहा है । यद्यपि वे अभी तक संसार में विद्यमान हैं, क्रियाशील हैं तदपि वे तीर्ण और मुक्त हैं ऐसा कहने का विशेष प्रयोजन है । वह प्रयोजन यह है कि जिन साधकों ने पापारम्भ प्रवृत्ति रोक दी है वे कर्मबन्ध के कारणों को-रागद्वेष आसक्ति को दूर कर चुके हैं अतएव उन्हें कर्मबन्ध नहीं होता इसलिये वे तीर्ण हैं और मुक्त हैं । निकट भविष्य में ही वे मुक्त और तीर्ण होने वाले हैं इस अपेक्षा से भी ऐसा कहा जाता है । कर्मबन्ध वहीं तक होता है जबतक आसक्ति-रागद्वेष है। आसक्ति मिट जाने के बाद कर्मबन्ध नहीं है। जिस प्रकार मिट्टी का लौंदा गीला होने से दीवार पर चोंट जाता है लेकिन सूखा हुआ मिट्टी का गोला दीवार पर नहीं लगता और नीचे गिर जाता है इसी तरह निरासक्त साधक के आसक्तिरूप स्निग्धता न होने से कर्मबन्ध नहीं होता और जो आसक्त हैं वे कर्मबन्ध के भागी हैं। पापारम्भ से निवृत्त साधकों को आसक्ति नहीं होती अतएव वे संसार में विद्यमान होते हुए भी मुक्त हैं। -उपसंहारइस उद्देशक में निरासक्ति का स्वरूप कहा गया है। पदार्थ-त्याग किए बिना निरासक्ति नहीं हो सकती । अपरिग्रही बनने के लिए पदार्थों का त्याग अवश्य करना चाहिए, पदार्थ त्याग भी समतापूर्वक किया जाना चाहिए और त्याग के बाद अगर अनासक्ति नहीं आई तो वह त्याग भी साधक नहीं होता। इस में साधक को अपनी शक्ति का गोपन न करने का कहा गया है। शीलरक्षा चारित्र रूपी महल की बुनियाद है । अध्यवसायों पर कर्मबन्ध का आधार है । वृत्तियों का विजेता सच्चा विजेता है। जहाँ आसक्ति है वहाँ कर्मबन्धन है । जगत की बाह्यदृष्टि का त्याग करना और अन्तर्दृष्टि का विकास करना चाहिए । जहाँ सत्य है वहाँ श्रात्मज्ञान है, जहाँ आत्मज्ञान है वहाँ साधुता है । ऐसा मैं कहता हूँ। इति तृतीयोद्देशकः For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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