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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पश्चम अध्ययन तृतीयोद्देशक ] [३८७ भावार्थ-ऐसे संयभी मुनि सभी तरह से पवित्र बोध को प्राप्त करके नहीं करने योग्य पापकर्म की ओर दृष्टि तक नहीं डालते हैं। जो सम्यक्त्व है वह मुनिधर्म है और जो मुनिधर्म है वह सम्यक्त्व है । ऐसा सम्यक्त्व अथवा मुनिधर्म, शिथिलाचारी धैर्यहीन, निर्बल मन वाले–ममता से आई, विषयासक्त, मायावी, प्रमादी और घर में रहने वाले (घर पर ममता रखने वाले ) साधकों से नहीं पाला जा सकता है । सच्चे मुनि ही मुनिधर्म को अंगीकार करके शरीर को कसते-कृश करते हैं । ऐसे सत्यदर्शी वीर साधक हल्का और लूग्वा आहार करते हैं। ऐसे साधक ही संसार-समुद्र से पार होते हैं। सावद्य अनुष्ठान से विरत होने वाले साधक संसार से तिरे हुए और मुक्त कहे जाते हैं । ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-इस सूत्र में सूत्रकार मुनिधर्म की और सम्यक्त्व की एक रूपता का प्रतिपादन करते हैं। पहिले के सूत्र में लोककीर्ति की भावना का त्याग करने का कहा गया था। इसका अर्थ कोई साधक यह न समझ ले कि सदा सर्वदा दुनिया से निराला ही रहना । दुनिया जिस मार्ग पर चलती हो उससे ठीक उल्टे मार्ग पर चलना। सूत्रकार तो यह फरमाते हैं कि दुनिया के अनुकूल चलना या विपरीत चलना इससे कुछ प्रयोजन नहीं है । वास्तविक प्रयोजन तो सत्य से है । जहाँ सत्यदर्शीत्व है वहाँ मुनित्व है और जहाँ मुनित्व है वहाँ सत्यदर्शीत्व है । इस वाक्य में सूत्रकार ने समस्त उद्देशक का सार भर दिया है। __यहाँ सम्यक्त्व का अर्थ निश्चय सम्यक्त्व लेना चाहिए। वैसे चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक्त्व पाया जाता है परन्तु वहाँ मुनिधर्म नहीं पाया जाता। अतएव सम्यक्त्व का अर्थ निश्चय समकित से है। जहाँ ऐसा सम्यक्त्व है वहाँ ज्ञान है और जहाँ ज्ञान है वहाँ विरति है क्योंकि ज्ञान का फल विरति ( चारित्र) कहा गया है। ज्ञान और सम्यक्त्व (दर्शन) सहभावी है। ज्ञान के होने से दर्शन सम्यग्दर्शन है और सम्यग्दर्शन के होने से ज्ञान सुज्ञान है। इस प्रकार ज्ञान, दर्शन और चारित्र की एकरूपता समझनी चाहिए। इसी एकरूपता को लक्ष्य में रखकर यहाँ यह कहा है कि जहाँ सम्यक्त्व है वहाँ मुनिधर्म है और जहाँ मुनिधर्म है वहाँ सम्यक्त्व है। सच्चा साधक सत्यदृष्टि को सन्मुख रखकर ही क्रिया करता है । वह लोक निन्दा से नहीं डरता और लोक-स्तुति की इच्छा नहीं करता। यद्यपि कई बार ऐसा होता है कि कई साधक लोकनिन्दा से डरकर भी संयम का पालन करते हैं। लोकनिन्दा का भय उन्हें साधना के मार्ग से गिरने से रोक लेता है और वे संयम का पालन करते रहते हैं लेकिन इसमें प्रमाणत्व नहीं है । वास्तविक संयम की आराधना वही है जो आत्मदृष्टि को लक्ष्य में रखकर ही की जाती है। अतएव सूत्रकार कहते हैं कि जहाँ आत्मज्ञान है वहाँ सम्यक्त्व है और जहाँ सम्यक्त्व है वहाँ मुनिधर्म है अतएव सम्यक्त्वसत्यदर्शीत्व की ओर विशेष सावधान रहने की आवश्यकता है। ऐसा सत्यदर्शी साधक इस संसार में किसी भी अकरणीय पाप क्रिया की ओर दृष्टि भी नहीं डालता है। जिसने सत्यतत्त्व का बोध कर लिया है वह अवश्य ही प्रारम्भ से निवृत्त होता है । सत्यज्ञान की सार्थकता विरति से ही है। कहा भी है "णाणस्स फलं विरइ”। सूत्रकार सम्यक्त्व एवं मुनित्व का अन्योन्याश्रय भाव बताने के बाद यह फरमाते हैं कि कैसा साधक इसका पालन कर सकता है और कौन इसका पालन नहीं कर सकता। जो साधक कमजोर दिल का है, जो संयम में धीरता नहीं रख सकता, जो स्त्री, पुत्र आदि के मोह से घिरा हुआ है, जो इन्द्रियों के विषय में आसक्त है, जो वक्रता एवं मायाचार का सेवन करता है, जो प्रमादी है और जो घर गृहस्थी के झंझटों में पड़ा हुआ है, जिसे घर आदि की ममता है वह साधक कदापि सम्यक्त्व का एवं साधुत्व का सम्यग् प्रकार से पालन नहीं कर सकता है। ऐसा साधक लोकदृष्टि को लक्ष्य में रखे तो ही वह कुछ कर For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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