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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पञ्चम अध्ययन तृतीयोद्देशक ] का सर्वनाश हो जाता है। अतएव साधक को मोक्ष के अतिरिक्त अन्य किसी लक्ष्य की ओर दृष्टिनिपात ही न करना चाहिए। साधक के लिए सबसे अच्छी बात यह है कि वह इच्छा मात्र का नाश करे-चाहे वह इच्छा अच्छी हो या बुरी । इच्छा कालान्तर में श्रासक्ति रूप में बदले बिना नहीं रहती। अतएव साधक इच्छा मात्र का निरोध करे । मोक्षदृष्टि के सिवाय उसकी दृष्टि और कहीं नहीं जानी चाहिए। दुनियाँ के प्राणी मोक्षमार्ग से विपरीत प्रवृत्ति कर रहे हैं। वे विषय कषायादि से व्याप्त हैं और हिंसादि प्रारम्भों में प्रवृत्त हो रहे हैं अतएव दुख पा रहे हैं यह विचार कर साधक मोक्षमार्ग में ही प्रवृत्ति करे। दुनियाँ चाहे जिस ओर बहे, सच्चा साधक अपने निश्चित मोक्षमार्ग पर चलता ही रहता है। वह दुनियाँ की परवा नहीं करता। दूसरे दुनिया के मानवी अपनी मान पूजा व प्रतिष्ठा के लिए कार्य करते हों अथवा अपने अनुयायी-सेवक बढ़ाने में लगे हों तो भी वह साधक इन से लुब्ध और मुग्ध नहीं होता। वह दुनिया का अंध-अनुकरण नहीं करता वह तो अपने पुरुषार्थ से अपने मोक्षमार्ग पर अविचल चला करता है । ऐसा साधक ही सच्चा मुनि है। कहीं कहीं पर “संविद्धभये" ऐसा पाठ मिलता है इसका अर्थ यों समझना चाहिए कि हिंसादि अास्रवों से डर कर जो उनसे निवृत्त होता है वही मोक्षमार्ग का पथिक साधु है। सच्चा साधक कर्म के स्वरूप को भलीभांति जानता है और उसके उपादान कारणों का विचार करके सर्वथा उनसे दूर रहता है । ज्ञ-परिज्ञा द्वारा कर्म व उसके उपादानों को जानता है और प्रत्याख्यान परिज्ञा द्वारा उन्हें त्यागता है। कर्म के स्वरूप का दृष्टा साधक यह समझता है कि प्रत्येक प्राणी की कर्म-परिणति भिन्न-भिन्न है अतएव उनके आशय और उनसे होने वाले सुख-दुख सबके निराले-निराले हैं। प्रत्येक प्राणी अपने कर्मों के फल से सुखी है या दुखी । उसके कर्मों का फल उसे ही प्राप्त होता है। अन्य के सुख से अन्य सुखी और अन्य के दुख से अन्य दुखी नहीं होता है। प्रत्येक प्राणी अपने कर्म से स्वयं दुखी और सुखी होता है । प्रत्येक प्राणी साताभिलाषी है अतएव वह साधक किसी भी प्राणी को पीड़ा नहीं पहुंचाता है। न स्वयं हिंसा करता है, न करवाता है और न अनुमोदन करता है । वह संयमी जीवन व्यतीत करता है । अहिंसा और संयम उसके जीवन में पूर्णरूप से उतर जाते हैं। वह इस प्रकार उच्च स्थिति पर पहुंच जाता है तदपि वह अभिमान नहीं करता है, अपने को प्राप्त हुई ऋद्धि का या लब्धि का अथवा सुख के साक्षात्कार का प्रदर्शन नहीं करता । उच्चस्थिति पर आने पर सहज ही सामान्य प्राणी को अभिमान आ घेरता है। वह अपनी सम्पत्ति का, शक्ति का प्रदर्शन करने लगता है लेकिन यह अपूर्णता की निशानी है । इसलिए सूत्रकार फरमाते हैं कि वह साधक प्रगल्भता से दूर रहता है। अथवा प्रगल्भता से दूर रहने का अर्थ यह भी हो सकता है कि कदाचित् साधक से कोई दोष हो जाय तो वह उसे स्वीकार करके सुधार लेता है, धृष्टता नहीं करता है। दोष-सेवन करने पर वह बेशर्म नहीं होता लेकिन अपनी गलती पर अफसोस प्रकट करता है। यहाँ "हिंसा नहीं करता है' आदि उपलक्षण है इससे यह समझना चाहिए कि मोक्षदृष्टा साधक क्रोध नहीं करता, मान से दूर रहता है, माया और लोभ को पास नहीं आने देता। अन्तदृष्टा साधक मोक्ष के निर्मल यश को चाहने वाला होता है अतएव वह दुनिया के यश की परवा न करते हुए किसी सावध प्रवृत्ति का प्रारम्भ नहीं करता है । “वण्णाएसी" शब्द का अर्थ यश को चाहने वाला होता है। सच्चा साधक दुनिया के यश को प्राप्त करने के लिए तपश्चर्या या संयमादि क्रिया नहीं करता है । उसका ध्येय लोक-स्तुति का होता ही नहीं है । जहाँ लोक-स्तुति की भावना है वहाँ बाह्यदृष्टि शेष है । वहाँ अन्तर्दृष्टि नहीं समझनी चाहिए । जब बाह्यदृष्टि रहती है तब अन्तष्टि भुला दी जाती है । बहुत से उच्चकोटि के साधक भी इस कीर्ति-लोभ का संवरण नहीं करते लेकिन यह उनकी कमजोरी है। लोकयश प्राप्त करने की भावना आसक्ति का परिणाम है । लोकयश चाहना और निरासक्त होना ये दोनों For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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