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[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
संस्कृतच्छाया- – स एवैकः संविद्धपथः मुनिः, अन्यथा लोकमुत्प्रेक्षमाणः, इति कर्म परिज्ञाय सर्वशः सन हिनस्ति, संयमयति न प्रगल्भते, उत्प्रेक्षमाणः प्रत्येकं सातं, वर्णादेशी नारभते कञ्चन ( पापारम्भं ) सर्वस्मिन् लोके, एकात्ममुखः, विदिक्प्रतीर्णः, निर्विण्णचारी, अरतः प्रजासु ।
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शब्दार्थ — से हु-वही | एगे एक । मुणी = सच्चा मुनि है जो । लोगम् = संसार को । अन्नहा=मोक्षमार्ग से विपरीत प्रवृत्ति करते हुए व दुखी । उवेहमाणे = देखकर | संविद्धपहे = स्वयं मोक्षमार्ग पर भली प्रकार चलता रहता है । इय - इस कारण से । कम्म = व म-कर्म को । सव्वसो = सर्वथा । परिण्णाय=जानकर । पत्तेयं सायं = प्रत्येक जीव के सुख-दुख को अलग २ । उवेहमाणो= देखता हुआ | से= वह । न हिंसइ - किसी की भी हिंसा नहीं करता है । संजमइ संयम का पालन करता है | नो पग भइ = धृष्टता नहीं करता है । वरणाएसी = यश का अभिलाषी । सव्वलोए= सब संसार में | कंचण=किसी तरह का | नारभे = आरंभ नहीं करता है । एगप्पमुहे - आत्माभिमुख होकर | विदिसपने - मोक्षातिरिक्त दिशा में न जाने वाला । पयासु = स्त्रियों में । श्ररए = गृद्ध न होता हुआ | निविरणचारी = आरम्भ से उदासीन रहे ।
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भावार्थ—वही साधक सचमुच . मुनि है जो संसार को मोक्षमार्ग से विपरीत प्रवृत्ति करते हुए देखकर तथा उनके दुखों का विचार करके मात्र मोक्षमार्ग पर चला जाता है। ऐसा साधक कर्म के स्वरूप को जानकर "प्रत्येक जीव का सुख-दुख अलग अलग है" यह विचार कर किसी जीव को कष्ट नहीं पहुँचाता है, संयम मार्ग में प्रवृत्ति करता है, व धृष्टता का त्याग करता है । सुयश चाहने वाला मुनि संसार में किसी प्रकार की पापप्रवृत्ति नहीं करता है ( अथवा सच्चा साधक यश कीर्ति की भावना से कोई क्रिया नहीं करता है ) वह केवल मोक्ष की तरफ दृष्टि रखकर, इधर उधर नहीं भटकता है और स्त्रियों में गृद्ध नहीं होता हुआ सभी प्रारम्भों से उदासीन ( दूर ) रहता है ।
विवेचन - इस सूत्र में मोक्ष को ही साध्य मानकर उसी ओर प्रवृत्ति करने का उपदेश दिया गया है । पूर्व सूत्रों में अध्यवसायों की शुद्धि और अशुद्धि पर मोक्ष और बंध होना कहा गया है। सच्चे साधक के अध्यवसाय विशुद्ध ही होते हैं । वह जो क्रियाएँ करता है उसके मूल में शुद्ध आशय होता है। उसकी समस्त क्रियाएँ मोक्ष के उद्देश्य को लक्ष्य में रखकर ही होती हैं। वह शर्म, भय और लोक निन्दा या स्तुति से प्रेरित होकर क्रियाएँ नहीं करता । साधक जब साधना के मार्ग में आगे बढ़ जाता है तब उसे प्रतिकूल प्रसंगों की अपेक्षा अनुकूल प्रसंगों से विशेष सावधान रहने की आवश्यकता होती है । इसका कारण यह है कि साधना के फलस्वरूप उसे अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं; जनसमुदाय उसकी ओर आकर्षित होने लगता है । ऐसे समय पर मान, प्रतिष्ठा और अहंकार साधक को नीचे न गिरा दें इसके लिये विशेष सतर्क रहने की आवश्यकता है। उच्चकोटि पर पहुँचे हुए साधक भी अनुकूल संयोगों में अपने आप पर काबू न होने की वजह से पतन को प्राप्त हुए हैं। मान, प्रतिष्ठा और बड़ाई को सहन कराना - चाना अति कठिन है। मान प्रतिष्ठा का भूत जब सवार हो जाता है तो साधक के श्राध्यात्मिक जीवन
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