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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३८० ] [श्राचाराग-सूत्रम् शब्दार्थ-इमेण इस आन्तरिक शत्रुदल से । चेव ही। जुज्झाहि-युद्ध कर । बज्झो बाहर के। जुज्झण=युद्ध से। किं ते तुझे क्या प्रयोजन ? जुद्धारिहं आत्मयुद्ध के योग्य सामग्री । दुल्लहं खलुबार बार मिलनी कठिन है। भावार्थ-हे साधको ! अपने प्राभ्यन्तर शत्रुओं के साथ ही युद्ध करो। बाहर के युद्ध से क्या मिलने वाला है ? आत्मयुद्ध करने के लिए जो औदारिक शरीरादि सामग्री अभी मिली है वह पुनः पुनः प्राप्त होनी दुर्लभ है। विवेचन-इस सूत्र में अन्तदृष्टि और आत्मदर्शन करने की प्रेरणा की गई है। कोई मुमुक्षु प्रश्न करता है कि मैंने जीव और शरीर की भिन्नता समझ ली, अपनी शक्ति या गोपन भी मैं नहीं करता, संयम में पराक्रम करते हुए मैंने अठारह हजार शीलांग का धारण एवं पालन भी किया, तीर्थंकरों की आज्ञानुसार प्रवृत्ति भी करता हूँ तदपि अब तक मेरे सकल कर्मों का लेप दूर नहीं हुआ इसलिये कोई ऐसा असाधारण उपाय बताइए जिससे मैं सकल कर्म कलङ्क से रहित हो जाऊँ मैं आपके उपदेश के अनुसार करने के लिए तत्पर हूँ। अगर आप एक बार सिंह से भी युद्ध करने के लिए आदेश करेंगे तो मैं उसे भी सहर्ष अङ्गीकार करूँगा । मुझे किसी भी तरह कर्म-क्षय करना है, मैंने यह दृढ़ निश्चय कर लिया है। इसके लिए मैं कठिन से कठिन कार्य भी कर सकता हूँ आप मुझे कृपा करके मोक्ष का असाधारण कारण बताइये ताकि मैं शीघ्र निर्लेप बन जाऊँ। मुमुक्षु के इस प्रश्न का उत्तर इस सूत्र में दिया गया है कि-बाहर किसी से लड़ने की जरूरत नहीं है । हे साधक ! अगर तुझे मोक्ष की इतनी उत्कंठा है तो इसका एकमात्र उपाय यह है कि तू आत्मदर्शन कर और इसके फलस्वरूप तुझे जो श्राभ्यन्तर दुर्गुण प्रतीत हों उनके सामने क्रान्ति कर । उन्हीं श्राभ्यन्तर दुर्गुण-चोरों से युद्ध कर । ये ही युद्ध करने के योग्य हैं । बाहर युद्ध करने से तुझे कुछ भी नहीं प्राप्त होगा। अन्तर के काम, क्रोध, मद, लोभ, ईर्षा द्वेषादि शत्रुओं के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर । कर्म-सैन्य को पराजित करने के लिए आत्म-बल का पञ्चजन्य (शंख) फँक । तेरे इस आत्मबल की हुँकार से कर्म-सेना दहल उठेगी और तुझे कर्मलेप से मुक्ति मिलेगी। तेरी आत्मा कर्म से स्वतंत्र होकर मोक्ष के अखंड शासन की अधिकारिणी बनेगी। अतएव आत्म-युद्ध कर । बाह्य-संसार में यदा कदा भौतिक युद्ध होते हैं लेकिन आध्यात्मिक संसार में प्रतिपल युद्ध हुआ करता है। आत्मा की स्वाभाविक और वैभाविक शक्तियों में प्रतिक्षण संग्राम चलता रहता है । बाह्य-युद्ध में जब एक पक्ष पराजित हो जाता है तब युद्ध समाप्त होता है इसी तरह आध्यात्मिक संग्राम भी तभी पूर्ण होता है जब एक पक्ष पराजित होता है। जब आत्मा की वैभाविक शक्तियाँ बलवती होती हैं तब जीव को निगोद अवस्था में अनन्तकाल तक पड़ा रहना पड़ता है और जब स्वाभाविक शक्तियों की विजय होती है तब आत्मा सिद्धि-क्षेत्र का विशाल एवं अक्षय साम्राज्य प्राप्त करता है। भौतिक युद्ध में पाई हुई विजय कालान्तर में पराजय का साधन बनती है लेकिन आध्यात्मिक युद्ध में वैभाविक शक्तियों पर सम्पूर्ण रूप से प्राप्त की हुई विजय चरम और परम विजय है । भौतिक युद्धविजय से एक शत्रु का दमन होता है तो दूसरे अनेक शत्र पैदा होते हैं लेकिन आध्यात्मिक युद्ध में प्रान्तरिक शत्रओं का विनाश कर देने पर संसार में उसका कोई शत्रु नहीं रहता। वह प्राणीमात्र के साथ मैत्रीभाव रखता है। भौतिकविजेता संसार में अन्याय और अत्याचार का उदाहरण उपस्थित करता है For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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